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बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते। रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसी के अनुसार गुरुवर्य नयवियजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता आदि गुणों को देखकर भविष्य के एक महान् नररत्न की झांकी पाई । जसवन्त के भविष्य का प्रङ्कन कर लिया।
गुरुदेव श्री नयविजय जी महाराज ने स्थानीय जैन श्रीसंघ की उपस्थिति में बालक जसवन्त को जनशासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढ्य बनेगा, देश-विदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हैं तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के समान रहकर घर को प्रकाशित करेगा किन्तु यदि त्यागी होकर ज्ञानी बन गया तो सूर्य के समान हजारों घरों को प्रकाशित करेगा, हजारों प्रात्माओं को प्रात्मकल्याण का मार्ग बताएगा। अतः यदि एक घर की अपेक्षा अनेक घरों को मेरा पुत्र प्रकाशित करे, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या प्रिय हो सकता है ? मैं कैसी बड़भागी होऊँगी ? मेरी कुक्षी रत्नकुक्षी हो जाएगी।' ऐसे विचारों से माता के हृदय में हर्ष और प्रानन्द का ज्वार उठा, जैनशासन को अपनाई हई माता ने उत्साहपूर्वक गुरु और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने प्रतिप्रिय कुमार को एक शभ चौवड़िये में गुरु श्रीनयविजयजी को समर्पित कर दिया। यह भी एक धन्य क्षण था । इस प्रकार जैन-शासन के भविष्य में होनेवाले जयजयकार का बीजारोपण हया।
जसवन्त को भागवती दीक्षा
धर्मात्मा सोभागदे ने वैरागी और धर्मसंस्कारी जसवन्त को शासन के चरणों में अर्पित कर दिया। छोटे से कनोडं ग्राम में ऐसे उत्तम बालक को दीक्षा देने का कोई महत्त्व नहीं था, अतः श्रीसंघ ने अनुकूल साधन-सामग्री वाले निकटस्थ पाटण नगर में ही दीक्षा देने का निर्णय लिया। पिता नारायणजी का पाटण शहर के साथ उत्तम सम्बन्ध था । इसलिये हमारे चरित्रनायक पुण्यशाली जसवंतकुमार की भागवती दीक्षा शुभ-मुहूर्त में 'अरणहिलपुर' के नाम से प्रसिद्ध पाटण शहर में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई।
पद्मसिंह की विरक्ति और दीक्षा
बचपन से ही बालक जसवन्त के वैराग्यपूर्ण संस्कारों का प्रभाव उसके भाई पद्मसिंह पर पूर्णतया पड़ रहा. था अतःअपने भाई को संयम के पथ पर जाते हुए देखकर जसवन्त के भाई ‘पद्मसिंह' का मन भी वैराग्य के रंग में रंग गया। धर्मात्मा माता-पिता उसमें सहायक बने और पद्मसिंह द्वारा दीक्षा लेने की उत्कट भावना व्यक्त करने पर उसे भी उसी समय दीक्षा दी गई। जैनश्रमण परम्परा के नियमानुसार गृहस्थाश्रम का नाम बदलकर जसवन्त का नाम -'जसविजय' 'यशोविजय' और पद्मसिंह का नाम 'पविजय' रखा गया। इन नामों का समस्त जनता ने जयनादों की प्रचण्ड घोषणा के साथ अभिनन्दन किया। जनता का प्रानन्द अपार था। चतुर्विध श्रीसंघ ने सुगन्धित अक्षतों द्वारा पाशीर्वाद दिये। दोनों पुत्रों के माता-पिता ने भी अपने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद देकर उनको बधाई दी। अपनी कोख को प्रकाशित करने वाले दोनों बालकों को चारित्र के वेश में देखकर उनकी आँखें अश्रु से भीग गईं। घर में उत्पन्न प्रकाश पाज से जगत् को प्रकाशित करनेवाले पथ पर प्रस्थान करेंगे, इस विचार से दोनों के हृदय मानन्दविभोर हो गए।