________________ कातन्त्ररूपमाला त्यदादीनामविभक्तौ // 172 // त्यदादीनामन्त: अकारो भवति विभक्तौ परत: / सन्धिः / द्वौ / द्वौ / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम् / द्वयोः / द्वयोः // त्रिशब्दस्य तु भेदः / तस्य बह्वर्थवाचित्वात् बहुवचनमेव भवति / त्रयः / हे त्रय: / त्रीन् / त्रिभिः / त्रिभ्यः / त्रिभ्यः। आमि। त्रेस्त्रयश्च // 173 // त्रिशब्दस्य त्रयादेशो भवति नुरागमश्चामि परे / त्रयाणाम् / त्रिषु / कतिशब्दस्य तु भेदः / तस्यापि बहुवचनमेव भवति। कतेश्च जस्शसोलुंक्॥१७४॥ मुनिम् मुनिः मुनी मुनयः | मुनये मुनिभ्याम् मुनिभ्यः हे मुने ! हे मुनी ! हे मुनयः ! | मुनेः मुनिभ्याम् ..मुनिभ्यः मुनी ‘मुनीन् मुनेः मुन्योः मुनीनाम् मुनिना मुनिभ्याम् मुनिभिः / मुनौ मुन्योः मुनिषु इसी प्रकार से अग्नि, गिरि, रवि आदि उपर्युक्त शेवधिपर्यन्त इकारांत शब्द मुनिवत् ही चलते हैं। द्विशब्द में कुछ भेद हैं और वह द्विवचन में ही चलता है। अत:द्वि+औ है। त्यद् आदि शब्दों के अन्त व्यंजन या स्वर को अकार हो जाता है, विभक्ति के आने पर // 172 // तब द्वि को द्व होकर द्व+औ संधि होकर = द्वौ बन गया। द्वि+भ्याम् है। सर्वत्र द्वि को द्व किया जाता है। पुन: “अकारो दीर्घ घोषवति” सूत्र से दीर्घ होकर द्वाभ्याम् 3 बन गया। द्वि+ओस् में भी द्व+ओस् 'ओसि च' सूत्र से ए होकर संधि होकर द्वयोः 2 बन गया। तोद्वौ / द्वौ / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम / द्वाभ्याम / द्वयोः / द्वयोः / त्रिशब्द में भी कुछ भेद हैं तीन संख्या बहु अर्थवाची ही है अत: विभक्ति भी बहुवचन की ही आती है तो त्रि+जस् हैं—सूत्र से अग्नि संज्ञा होकर 'इरेदुरोज्जसि'-सूत्र से ए होकर संधि होकर त्रय: बना। त्रि+ शस् है मुनिवत् सब सूत्र लगकर त्रीन् बना। त्रिभि: इत्यादि। त्रि+आम् / आमि च नुः से नु का आगम होकर नु और आम् विभक्ति से परे 'त्रि' को त्रय आदेश हो जाता है // 173 // त्रय+नाम् दीर्घमामिसनौ से दीर्घ होकर न् को ण् होकर त्रयाणाम् बन जाता है / त्रि+ सु स् को ष् होकर त्रिषु बन गया। . त्रयः / त्रीन् / त्रिभिः / त्रिभ्यः / त्रिभ्य: / त्रयाणाम्। त्रिषु / कति शब्द में भेद है यह कति शब्द भी बहुवचन में ही चलता है। कति अर्थात कितने। कति+जस् संख्यावाची शब्द से परे षकारांत नकारांत से परे और कति शब्द से परे जस् शस् विभक्ति को लुक् हो जाता है // 174 //