Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 385
________________ 350 कातन्त्ररूपमाला श्लिष आलिङ्गने। अधिशयित: खट्वां भवान् / अधिशयिता खट्वा भवता / उपस्थितो गुरुं भवान् / उपस्थितो गुरुर्भवता / उपसितो गुरुं भवान् / उपासितो गुरुर्भवता / वस निवासे / अनृषितो गुरुं भवान् / अनूषितो गुरुर्भवता / अनुजातो.बुधं चन्द्रमा: अनुजातो बुधश्चन्द्रमसा। आरूढो वृक्षं कपि: आरूढो वृक्ष: कपिना। जृषुझ्षु वयोहानौ / अनुजीणों वृषली भवन् / अनुजीर्णा वृषली भवता। क्तोऽधिकरणे च धौव्यगतिप्रत्यवसादनार्थेभ्यः // 726 // ध्रुवस्य भावो ध्रौव्यं प्रत्यवसादनं भोजनं / ध्रौव्यार्थेभ्य: गत्यर्थेभ्यः प्रत्यवसादनार्थेभ्यश्च क्तो भवति अधिकरणे इदमेषामासितं / इदमासितमेभिः / अत्रासितोऽयं / इदमेषां यातं / इदं / तैर्यातं / ग्रामं ते याताः / इदमेषां भुक्तं / इदं तैर्भुक्तं / ओदनं ते भुक्ताः / इदमेषां पीतं / पयस्तै: पीतं / पयस्ते पीता: / पीत पयः / ज्यनबन्धमतिबद्धिपजार्थेभ्यः क्तः // 727 // मतिरिच्छा बुद्धिर्ज्ञानं पूजा सत्कारः / ज्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्य: क्तो भवति वर्तमानकाले भावे कर्मणि कर्तरि च यथासम्भवं / जिमिदा स्नेहने / मिनः / स्विन्नः / क्ष्विण्णः / राज्ञां मत: / सतामिष्टः बुद्धौ राज्ञां बुद्धः / राज्ञां ज्ञात: / पूज पूजायां / राज्ञां पूजितः / सतामर्चित: / नपुंसके भावे क्तः // 728 // भावे क्तो भवति नपुंसके / उपासितमत्र / सुजल्पितं / कुमारस्य शयितं / आस् उपवेशने / आसितं पुत्रस्य एधिंत। युट् च // 729 // भावे नपुंसके युट् च भवति / भवनं / पचनं / यजनं / वसनं / देवनं / तोदनं / रोदनं / करणं / मननं / इत्यादि सर्वमवगन्तव्यं / - से-शयित: भवान्, शयितं भवता / श्लिषादि धातु उपसर्ग सहित सकर्मक कहलाती हैं। आश्लिष्टः गुरुं भवान्, आश्लिष्टः गुरु: भवता इत्यादि / ध्रौव्यार्थक, गत्यर्थक और भोजनार्थक प्रत्यवसादनार्थक धातु से अधिकरण अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होता है // 726 // ध्रुव के भाव को धौव्य कहते हैं। भोजन को प्रत्यवसादन कहते हैं। आस् धातु से-आसितं, इदं एषां आसितं इदं आसितं एभि: अर्थात् यह यहाँ बैठा है / इत्यादि। बि अनुबंधधातु से, मतिबुद्धि पूजार्थ वाले धातु से 'क्तं' प्रत्यय होता है // 727 // यथा सम्भव वर्तमान काल में भाव, कर्म और कर्ता में क्त प्रत्यय होता है / मति–इच्छा, बुद्धि-ज्ञानं, पूजा-सत्कार / जिमिदा-स्नेह करना। 'दाद्दस्य च' 705 सूत्र से तकार के आने पर दकार और तकार दोनों को नकार हो जाता है। मिन्न:, स्वित्र, शिवण्णः, मनुङ्-मत: 710 सूत्र से पंचम अक्षर का लोप हुआ है। इषु-इच्छायां इष्टः, बुध-बुद्धः, पूजित: अर्चितः / सताम् अर्चित: सज्जनों से पूजा गया। नपुंसकलिंग में भाव में 'क्त' प्रत्यय होता है // 728 // आस्-उपासितम् अत्र / सुजल्पितम् / शयितं कुमारस्य, कुमार का सोना / एधितम् इत्यादि / भाव में नपुंसक लिंग में 'युट्' भी होता है // 729 // 'युवुलामनाकान्ता:' ५५९वें सूत्र से यु को 'अन' आदेश होकर अन विकरण और 'अनिचविकरणे' से गुण होकर-भवनं पचनं यजनं इत्यादि / ऐसे ही सभी में समझ लेना।

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