Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 400
________________ 365 कृदन्तः गरोश्च निष्ठायां सेटः॥८०९॥ निष्ठायां सेट: मुरुमतो धातोरप्रत्ययो भवति स्त्रियां / ईह चेष्टायां ईहनं ईह्यत इति वा ईहा। ईक्ष दर्शन ईक्षणं / ईक्षा / एवं सर्वमवगन्तव्यम्। भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा॥ कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यत // 1 // मन्दबुद्धिप्रबोधार्थ भावसेनमुनीश्वरः॥ कातन्त्ररूपमालाख्यां वृत्तिं व्यररचत्सुधीः // 2 // क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके॥ सन्मानं नुतभावसेन मुनिये विद्यदेवे मयि // 3 // सिद्धान्तोऽयमथापि यः स्वधिषणागोंद्धतः केवलम्॥ संस्पर्द्धत तदीयगर्वकुहरे वज्रायते मद्वचः॥४॥ . इति कातन्त्रस्य रूपमाला प्रक्रिया समाप्ता। __ अत्र उपयुक्ताः श्लोकाः। आख्यातं श्रीमदाद्याहत्प्रभोर्जेजीयते भुवि / यत्प्रसादाद् व्याकरणं भवेत् सर्वार्थसाधकं // 1 // निष्ठा प्रत्यय के आने पर इट् सहित दीर्घवाले धातु से स्त्रीलिंग में 'अ' प्रत्यय होता है // 809 // * ईह-चेष्टा करना, ईहनं ईह्यते इति वा ईह–अ 'स्त्रियामादा' से आ प्रत्यय होकर 'ईहा' / ईक्ष्-देखना—ईक्षणं-ईक्षा। इसी प्रकार से सभी को समझ लेना चाहिये। . इस प्रकार से कृदन्त प्रकरण समाप्त हुआ। श्लोकार्थ-वादिगण रूपी पर्वतों के लिये वज्र के सदृश ऐसे श्रीमान् भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने इस कातंत्र व्याकरण की 'रूपमाला' नामक टीका में कृदन्त प्रकरण पूरा किया है // 1 // . मंदबुद्धि शिष्यों को प्रबोध कराने के लिए बुद्धिमान् श्री भावसेन मुनीश्वर ने कातंत्ररूपमाला नाम की वृत्ति को रचा है // 2 // अन्य जनों के द्वारा संस्तुत मुझ भावसेन त्रैविद्यदेव का तो यह सिद्धांत है कि अपने से हीन जनों पर अनुग्रह किया जाय, समानजनों पर सौजन्य किया जाय और अपने से अधिकजनों में सम्मान प्रदर्शित किया जाय // 3 // यद्यपि यह सिद्धांत है फिर भी जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत है और केवल हम जैसों के साथ मात्र स्पर्धा या ईर्ष्या करते हैं उनके गर्व रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिये मेरे वचन वज्र के सदृश आचरण करते हैं // 4 // ... इस प्रकार कातंत्र व्याकरण की रूपमाला नाम की प्रक्रिया समाप्त हुई। यहाँ उपयुक्त श्लोक और हैं।

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