Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 402
________________ हिन्दी अनुवादकर्ती की प्रशस्ति शंभुछंद महावीर वीर सन्मति भगवन् हे वर्धमान त्रिशलानंदन / हे धर्मतीर्थ कर्ता तुमको, है मेरा कोटि कोटि वंदन // हे मंगलकर्ता लोकोत्तम, हे शरणागत रक्षक निरुपम / इस कलियुग के भी अंतिम तक, तव अविच्छिन्न शासन अनुपम // 1 // श्रीकुन्दकुन्द गुरुदेव मुनि को मेरा शत शत है प्रणाम। है मूलसंघ में कुन्दकुन्द आम्याय सभी संघ में ललाम // उसमें सरस्वती गच्छ माना, गण कहलाता है बलात्कार / इनमें हो चुके मुनी जितने, उन सबको मेरा नमस्कार // 2 // कलिकालप्रभाव दलित करने, उत्पन्न हुये इक सूरिवर्य / चारित्रचक्रवर्ती गुरूवर, श्रीशांतिसागराचार्यवर्य // इन परम्परा में देश भूषणाचार्य मुनी जग में विश्रुत / उन आद्यगुरु के प्रसाद से, पाया व्याकरणज्ञान अद्भुत // 3 // श्रीशांतिसिंधु के पट्टशिष्य, गुरू वीरसागराचार्य यती। वे मेरे आर्यादीक्षागुरू उनसे ही हुई मैं ज्ञानमती // वीराब्द चौबिस सौ निन्यानवे, है शरद्पूर्णिमा आश्विन में। कातंत्र रूपमाला का यह अनुवाद पूर्ण किया शुभदिन में // 4 // इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यखंड में कर्मभूमि। भारत की रजधानी मानी, यह इंद्रप्रस्थ उत्तम भूमि // महावीर प्रभू के शुभ पच्चीस शतक निर्वाण महोत्सव में। मैं भी संघ सहित यहाँ आई, जिनधर्म उद्योत रुची मन में // 5 // दोहा—यह हिन्दी अनुवाद युत, सरल व्याकरण मान। पढ़े पढ़ावें सर्वजन, बने श्रेष्ठ विद्वान् // 6 // आगम के सूत्रार्थ को, करें आर्ष अनुकूल। निज पर को संतुष्ट कर प्राप्त करें भव कूल // 7 // यावत् जिन आगम यहाँ, जग में करे प्रकाश / तावत् यह व्याकरण कृति, करे सुज्ञान विकास // 8 // *वर्धतां जिनशासनम्* १.ईस्वी सन् 1973

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