Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 399
________________ 364 कातन्त्ररूपमाला हाज्याग्लाभ्यश्च // 804 // एभ्यो धातुभ्यश्च परस्य क्ते: नकारो भवति स्त्रियां / ओहाक् त्यागे हानं हानि: / ज्या वयोहानौ ज्यानं ज्यानि: / ग्लानं ग्लानिः / संपदादिभ्यः क्विप्॥८०५॥ संपदादिभ्य: क्विप् भवति भावे स्त्रियां। पद गतौ संपद्यते संपदनं वा संपत्। षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु // संसदनं संसत् / परिषदनं परिषत् / पप // 806 // आभ्यां भावे स्त्रियां क्यब् भवति / बज् गतौ प्रव्रजनं प्रव्रज्या इज्या। श च // 807 // कृवो भावे शो भवति क्यप् क्तिश्च स्त्रियां। क्रीयते करणं वा यणाशिषोयें इति इकारागम: क्रिया धातोस्तोन्त: पानुबन्धे कृत्वा कृतिः / शंसिप्रत्ययादः / / 808 // शंसे: प्रत्ययान्ताद्धातो वे अप्रत्ययो भवति स्त्रियां शंसु विस्तुतौ प्रशंसनं प्रशस्यते इति वा प्रशंसा। प्रत्ययान्तात् बुभूषणं बुभूष्यत् इति वा बुभूषा / वच परिभाषणे विवक्षणं विवक्षा / विधित्सनं विधित्सा। पिपतिषणं पिपतिषा। पिपासनं पिपासा। बोभूयनं बोभूया। कण्डूगात्रविकर्षणे। स्वार्थेयण् / कण्ड्वादेर्यण् कण्डूयनं कण्डूया। च' सूत्र 397 से ऋदंत को अगुण प्रत्यय आने पर उर् हो जाता है और “नामिनोवोरकुच्र्छव्यंजने” सूत्र से उर् को दीर्घ होकर 'पूर्ति:' बना ऐसे ही मृङ् से मूर्ति: बना। हा ज्या और ग्ला से परे क्ति के तकार को नकार हो जाता है // 804 // ओहाक्-त्यागे-हानं हानि:, ज्या वयोहानौ ज्यानं ज्यानि:, ग्लानं ग्लानिः / संपद् आदि से भाव में स्त्रीलिंग में क्विप् होता है // 805 // पद-गमन करना संपद्यते संपदनं वा संपत् / षद्ल-विशरणगति अवसादन अर्थ में है। संसदनं संसत् / परिषदनं परिषत्। व्रज् यज् से भाव में स्त्रीलिंग में क्यप् होता है // 806 // प्रव्रजनं-प्रव्रज्या, यजनं इज्या। 'स्त्रियां आदा' सूत्र से आ प्रत्यय होता है। कृ धातु से भाव में स्त्रीलिंग में 'श' क्यप् और क्ति प्रत्यय होते हैं // 807 // क्रियते करणं वा 'यणाशिषोयें' सूत्र से इकार का आगम होकर 'श' प्रत्यय से क्रिया बना, यहाँ 'स्त्रिया मादा' सूत्र से 'आ' प्रत्यय हुआ है। आगे 'धात्तोस्तोन्त: पानुबंधे' सूत्र से क्यप् प्रत्यय में पानु बंध होने से ह्रस्वांत धातु से तकार का आगम होकर कृत्य आप्रत्यय होकर कृत्या' बना है / क्ति से कृति: बना है। शंस और प्रत्ययांत धातु से भाव में स्त्रीलिंग में 'अ' प्रत्यय होता है // 808 // शंसु-स्तुति करना। प्रशंसनं प्रशस्यते इति वा प्रशंसा “स्त्रियामादा" सूत्र से 'आ' प्रत्यय हुआ है। प्रत्ययान्तसे—बुभूषणं बुभूष्यते इति वा बुभूषा / वच-परिभाषण करना। विवक्षणं-विवक्षा। विधित्सनं विधित्सा। पतितुम् इच्छति पिपतिषति पिपतिषणं पिपतिषा। पिपासनं पिपासा / वोभूयनं बोभूया। कण्डू-गात्र विकर्षण करना। स्वार्थ में यण् प्रत्यय हुआ है 'कण्ड्वादेर्यण' कण्डूयनं कण्डूया।

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