Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 390
________________ कृदन्तः 355 उपसर्गाणां घत्रि बहुलम् // 754 // उपसर्गाणां दीघों भवति बहुलं घजि परे डुलभष् प्राप्तौ / उपलम्भ: उपालम्भः / प्रलम्भ: प्रालम्भः / असुदुर्ध्यामिति किं / सुलभ: दुर्लभः / अकर्तरि च कारके संज्ञायाम // 755 // कर्तृवर्जिते कारके भावे च संज्ञायां घञ् भवति / दीयते अस्मादिति दाय: / चीयतेऽस्मादिति चाय: / एवं विघात: / अस–क्षेपणे प्रास्यते अस्मादिति / प्रास: / आहारः / विहरन्त्यस्मिन्निति वा विहारः / भुज्यते इति भोगः। स्वरवृदृगमिग्रहामल्॥७५६ // स्वरान्तावृदृगमिग्रहिभ्यश्च अल् भवति भावे। भूयते भवनं वा भवः / भयनं भयः / जयनं जयः / वरणं वरः। दरणं दरः / गमनं गमः / ग्रहणं ग्रहः / / ट्वनुबन्धादथुः // 757 // ट्वनुबन्धाद्धातोरथुर्भवति भावे / टुवेपृ कम्पि चलने / वेपथुः / टुदु उपतापे / दवथुः / टुवेप / वेपनं वेपथुः / टुणदि समृद्धौ / नन्दथुः टुवम् उद्गिरणे / वमथुः / टु ओश्वि गतिवृदयोः / श्वयथुः / . ड्वनुबन्धात्रिमक्तेन निवृत्ते // 758 // ड्वनुबन्धाद्धातोस्त्रेर्मग्भवति तेन धात्वर्थेन निवृत्ते / पाकेन निर्वृत्तं पवित्रमं / एवं कारणेन निर्वृत्तं कृत्रिमं। याचिविछिपछियजिस्वपिरक्षियतां नङ् / / 759 // एभ्यो नङ् भवति भावे। याच्वा। छ्वोः शूठौ इति शकारः / विश्न: / प्रश्न: / यज्ञ: / स्वप्न: / रक्ष्णः / यती प्रयले / प्रयत्नः / घञ् प्रत्यय के आने पर बहुलता से उपसर्ग को दीर्घ हो जाता है // 754 // उपलम्भ; उपालम्भ: प्रलम्भ: प्रालम्भः / सुषुर् को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? सुलभ: दुर्लभः / इनमें मकार आगम और दीर्घ नहीं हुआ है। कर्तृ वर्जित कारक और भाव में संज्ञा अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है // 755 // दीयते अस्मात् इति दाय: चीयते-चाय: हन् से विघात: अस्-प्रास: ह-आहारः विहारः भोग: इत्यादि। स्वरांत से और तु, द, गम, ग्रह धातु से भाव में 'अल्' प्रत्यय होता है // 756 // भूयते भवनं वा भव:, भय: जयनं-जय: वर: दरः गम: ग्रहः। टु अनुबन्ध धातु से भाव में 'अथु' प्रत्यय होता है // 757 // टु वेपृ-वेपथुः टुदु-उपतापे-दवथुः कंपथुः टुणदि-समृद्धौ–नंदथुः टुवमु-उद्गिरणेवमथुः टुओश्वि, गति वृद्धयोः श्वयथुः। डु अनुबंध धातु से निवृत्त अर्थ में 'त्रिम' प्रत्यय होता है // 758 // पाकेन निवृत्तेः पवित्रमं 'चवर्गस्यकिरसवणे' से क् हुआ है। कारकेण निर्वृत्ते: कृत्रिमं बना। याच विछ प्रच्छ यज् स्वप् रक्ष और यत् से भाव में 'नङ् होता है // 759 // याचा वन 'छ्वौ: शूठो पंचमे च' सूत्र 661 से छकार को शकार होकर विश्न: प्रश्न: यज् से न को ज होकर 'जजोर्ज:' नियम से यज्ञ: स्वप्न: रक्ष्णः प्रयत्नः /

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