________________ तिङन्त: 273 न व्ययते: परोक्षायाम्॥३३० // व्ययतेराकारो न भवति परोक्षायां गुणिनि। विवाय विव्यतुः विव्युः / विव्यिथ विव्येथ विव्यथुः विव्य / विव्याय विव्यय विव्यिव विव्यिम। विव्ये विव्याते विव्यिरे / ह्वेञ्-स्पर्धायां वाचि। अभ्यस्तस्य च // 331 // ह्वयतेरभ्यस्तमात्रस्य च संप्रसारणं भवति / जुहाव जुहुवतुः जुहुवुः / जुहविथ जुहोथ / जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे / वद व्यक्तायां वाचि / उवाद ऊदतुः ऊदुः / उवदिथ / ऊदे ऊदाते ऊदिरे / वस निवासे / उवास ऊषतुः ऊषुः / उवसिथ उवस्थ / ऊषे ऊषाते ऊषिरे / टुओश्वि गतिवृद्ध्योः / श्वयते // 332 // श्वयतेर्वा संप्रसारणं भवति परोक्षायां चेक्रीयिते च / शुशाव शुशुवतुः शुशुवुः / शुशविथ शुशोथ शुशुवथुः शुशुव / शुशाव शुशव शुशुविव शुशुविम। शुशुवे शुशुवाते शुशुविरे / शिश्वाय शिश्वियतुः शिश्वियुः / शिश्वयिथ शिश्वेथ शिश्वियथुः शिश्विय / शिश्वाय शिश्वय / शिश्विये शिश्वियाते शिश्वियिरे / इति भ्वादिः // ' वा परोक्षायाम्॥३३३॥ अदर्घस्लृ आदेशो भवति वा परोक्षायां / जघास / गमहनेत्यादिना उपधालोपो भवत्यगुणे / जक्षतुः जक्षुः / जघसिथ जघस्थ जक्षथुः जक्ष / जघास जघस जक्षिव जक्षिम / घस्तृभावे। - परोक्षा के गुणी में व्ये धातु आकारांत नहीं होता है // 330 // विव्याय विव्यतुः विव्युः, विपिव्यथ विव्यथ। आत्मनेपद में विव्ये विव्याते विव्यिरे / ढे–बुलाना। ह्वे धातु के अभ्यस्त मात्र को संप्रसारण हो जाता है // 331 // जुहाव जुहुवतुः जुहुवुः / जुहुविथ जुहीथ / आत्मनेपद में-जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे / वद-स्पष्ट * 'बोलना। उवाद ऊदतुः ऊदुः। उवदिथ / ऊदे ऊदाते ऊदिरे / वस–निवास करना। उवास ऊषतुः ऊषुः उवसिथ, उवस्थ / ऊषे ऊषाते ऊषिरे। टुओश्वि-गति और वृद्धि अर्थ में। श्वि परोक्षा और चेक्रीयित में श्वि को विकल्प से संप्रसारण होता है // 332 // शुशाव शुशुवतुः शुशुवुः / संप्रसारण न होने से शिश्वाय / शिश्वियतुः शिश्वियुः / आत्मनेपद - में शिश्विये शिश्वियाते। इस प्रकार से परीक्षा में भ्वादि गण समाप्त हुआ। परोक्षा में अदादि गण प्रारम्भ होता है। परोक्षा में विकल्प से अद् को घस् आदेश होता है // 333 // जघास / जघस् अतुस् ‘गमहन्' इत्यादि सूत्र से अगुणी में उपधा का लोप हो जाता है अत: घ के अ का लोप होकर प्रथम अक्षर क् होकर स को ष होकर जक्षतुः जक्षुः बन गया। . इट में जघसिथ-अनिट् में-जघस्थ बना। जब घस् आदेश नहीं हुआ तब