________________ तिङन्त: 271 परोक्षायामभ्यासस्योभयेषाम् // 322 // उभयेषां ग्रहादिस्वप्यादीनामभ्यासस्यान्तस्थायाः सम्प्रसारणं भवति परोक्षायां / गुण्यर्थोयं योगः / ग्रहीङ् उपादाने / जग्राह / अहिज्यावयीत्यादिना संप्रसारणं / जगृहतुः जगृहुः / आकारादट औ॥३२३॥ आकारात्पररयाट् और्भवति।। सन्ध्य क्षरे च // 324 // .. . धातोराकारस्य लोपो भवति सन्ध्यक्षरे च परे / ज्या वयोहानौ / जिज्यौ // य इवर्णस्य // 325 // असंयोगा पूर्वस्यानेकाक्षरस्य इवर्णस्य यो भवति / इति इवर्णस्य यकार: / जिज्यतुः जिज्युः / इटि च // 326 // धातोराकारस्य लोपो भवति इटि परे / जिज्यिथ जिज्यथुः जिज्य / जिज्यौ जिज्यिव जिज्यिम / वेत्र तन्तुसन्ताने। . वेञश्च वयिः॥३२७॥ वेजो वा वयिर्भवति परोक्षायाम / तत्र च संप्रसारणं भवति / उवाय ऊयतः ऊयः / उवयिथ ऊयथ ऊय। उवाय उवय ऊयिव ऊयिम / पक्षे सन्ध्यक्षरान्तानामाकारो विकरणे इत्याकारादेशः / एवं उपधा के अकार को 'ए' होकर अभ्यास का लोप होने से तेरतुः तेरुः। फल-निष्पन्न होना, पफाल फेलत: फेलः / भज, श्रीङ्-सेवा करना / बभाज भेजत: भेजः / त्रपूष-लज्जा करना वेपे पाते वेपिरे / श्रन्थ ग्रन्थ-संदर्भ / शश्रन्थ श्रेथतुः श्रेथुः / अनुषंग रहित तृ आदि धातु के सहचारी होने से अभ्यास का लोप और अकार को एकार नहीं हुआ। शश्रन्थिथ / जग्रन्थ ग्रेथतुः ग्रेथुः / जगन्थिथ / दम्भू-दम्भ करना। ददम्भ देभतुः देभुः / ददम्भिथ। अन्यत्र अनुषग लोप नही होता है ऐसा क्यों कहा? तो ननन्द ननन्दतुः ननन्दुः में अनुषंग लोप नहीं हुआ है। सस्रंसे बभ्रंसे दध्वंसे। ___ग्रहादि और स्वप्यादि धातुओं में अभ्यास के अंतस्थ को परोक्षा में संप्रसारण हो जाता है // 322 // * गुणी विभक्ति के लिये यह योग-सूत्र है इससे यह अर्थ हुआ कि अगुणी में दोनों को संप्रसारण कर दो। ग्रह धातु से-जग्राह / “अहिज्या” इत्यादि सूत्र से संप्रसारण होकर जगृहतुः जगृहुः / आकार के परे अट् को 'औ' हो जाता है // 323 // संध्यक्षर के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है // 324 // ज्या-जिज्यौ / पूर्व अभ्यास के जी को ह्रस्व होकर 'जि' बना है। ___ असंयोग अपूर्व अनेकाक्षर के इवर्ण को य हो जाता है // 325 // इवर्ण को यकार होकर जिजी अतुस् = जिज्यतु: जिज्युः।। इट् के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है // 326 // जिज्यिथ जिज्यथुः जिज्य / वेञ्-कपड़ा बुनना। _ परोक्षा में वेब् को वय् आदेश विकल्प से होता है // 327 // और संप्रसारण होकर उवाय ऊयतुः ऊयुः / उवयिथ / पक्ष में-'संध्यक्षरान्तानामाकारो विकरणे' सूत्र से आकार हो जाने से 'वा' बन गया। वा-गति और बंधन करना।