________________ 310 कातन्त्ररूपमाला भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा। कृतायां रूपमालायामाख्यात: परिपूर्यते // 1 // . अथ कृदन्ताः केचित्प्रदर्श्यन्ते सिद्धिरिज्वद्णानुबन्धे // 491 // णानुबन्धे कृत्प्रत्यये परे इचि कृतं कार्यमतिदिश्यते यथासंभवं / धातोः // 492 // अविशेषेण धातोरित्यधिकारो वेदितव्यः / कृत्॥४९३ // वक्ष्यमाणा: प्रत्यया: कृत्संज्ञका वेदितव्याः। कर्तरि कृ॥४९४॥ कृत्प्रत्ययान्ता: कर्तृकारके भवन्ति। वर्तमाने शन्तुडानशावप्रथमैकाधिकरणामन्त्रितयोः // 495 // अप्रथमैकाधिकरणामन्त्रितयोः परयो: वर्तमानकाले धातोः शन्तृङानशौ भवत: // वत्॥४९६॥ शानुबन्धे कृति परि सार्वधातुकंवत्कार्यं भवति / कृदन्ताः प्रायो वाच्यलिङ्गाः / शन्तृङन्तं क्विबन्तं धातुत्वं न जहाति / भवन् पुमान् / भवन्ती स्त्री। भवत्कुलं / लोकोपचारादानशानङावात्मनेपदे / अर्थ-वादीरूपी पर्वतों के लिये वज्र के सदृश ऐसे वादिपर्वत वज्री श्री भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने इस रूपमाला टीका में आख्यात प्रकरण पूर्ण किया है // 1 // . इस प्रकार से यहाँ तक तिडंत प्रकरण समाप्त हुआ है। अथ कृदन्त प्रकरण प्रारंभ होता है। बानुबंध, णानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर यथासंभव इच् में कहा गया कार्य हो जाता है // 491 // सामान्यतया 'धातो:' इस सूत्र से धातु का अधिकार समझना चाहिये // 492 // आगे धातु से कहे जाने वाले सभी प्रत्यय 'कृत्संज्ञक' समझना चाहिये // 493 // - कृत् प्रत्यय वाले शब्द कर्तृकारक में होते हैं // 494 // अप्रथमैकाधिकरण और आमंत्रित से परे वर्तमानकाल में धातु से शतृङ् और आनश् प्रत्यय होते हैं // 495 // शानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर सार्वधातुकवत् कार्य होता है // 496 // कत प्रत्यय वाले शब्द प्राय: वाच्यलिंग होते हैं। अर्थात विशेष्य के अनकल होते हैं। शतङ प्रत्यय वाले और क्विप् प्रत्यय वाले शब्द धातुपने को नहीं छोड़ते हैं / भू शतृङ् / श्ऋ और ङ् अनुबंध हैं अत: 'भू अन्त्' रहा ‘अन् विकरण: कर्तरि' सूत्र से अन् विकरण होकर 'अनि च विकरणे' सूत्र से गुण