________________ कृदन्त: 315 अनुपसर्गे आङ्गि चरेयों भवति अगुरौ। आचयों देश:। अनुपसर्ग इति किं ? अभिचार्य / अगुराविति किं ? आचार्यो गुरुः। पण्यावद्यवर्या विक्रेयगानिरोधेषु // 517 // एतेष्वर्थेषु एते निपात्यन्ते यथासंख्यं / पण्यमिति निपात्यते विक्रेयार्थे / अवद्यमिति निपात्यते गह्यार्थे / वर्यमिति निपात्यते अनिरोधार्थे / पण व्यवहारे स्तुतौ च / वद व्यक्तायां वाचि / वृ वरणे। पण्यं / अवद्यं / वयं / वा करणे // 518 // वह्यमिति निपात्यते करणेऽर्थे / वह्यं शकटं वाह्यमन्यत् / . अर्यः स्वामिवैश्ये // 519 // अर्यमिति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये चार्थे / अर्यते इति अर्य: स्वामी अयों वैश्यः / * उपसर्या काल्याप्रजने // 20 // प्रजने प्राप्तकाले चेत् उपसर्या इति निपात्यते / सृ गतौ / उपसर्या ऋतुमतीत्यर्थः / अजयं संगते॥५२१॥ अजर्यमिति निपात्यते संगतेऽर्थे / न जीर्यत इत्यजयं आर्यसंगतं / नाम्नि वदः क्यप् च // 522 // आचर्य: देश:। अनुपसर्ग ऐसा क्यों कहा ? घ्यण् प्रत्यय में अभि उपसर्ग से परे अभिचार्य / गुरु अर्थ न हो ऐसा क्यों कहा ? आचार्य: गुरुः। .. विक्रेय गॉ और अविरोध अर्थ में पण्य अवद्य और वर्य निपात से सिद्ध होते हैं // 517 // क्रम से पण व्यवहार और स्तुति अर्थ में है, विक्रेय अर्थ में 'पण्यं' निपात से सिद्ध हुआ। वद-स्पष्ट बोलना गह्यं अर्थ में न वद्यं = 'अवयं' निपात से बना। वृञ्-वरण करना। अनिरोध अर्थ में-वर्यं निपात से बन गया है। करण अर्थ में वह्य' निपात से सिद्ध होता है // 518 // वह धातु से वह्यं-शकटं / अन्य अर्थ में वाह्यं बना। स्वामी और वैश्य अर्थ में 'अर्य' शब्द निपात से सिद्ध होता है // 519 // ऋ धातु से अर्यते इति अर्य: स्वामी और वैश्य / यदि प्रजनकाल प्राप्त है तो 'उपसर्या' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है // 520 // सृ-गमन करन / उपसर्या-गर्भ धारण करने के योग्य ऋतुमती यह अर्थ है। संगत अर्थ में 'अजर्य' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है // 521 // न जीर्यते, ज-अजयं / इसका अर्थ है आर्यसंगति जीर्ण नहीं होती है। नाम उपपद से परे वद धातु से क्यप् और य प्रत्यय होता है // 522 //