Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 379
________________ 344 कातन्त्ररूपमाला वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् // 1 // वर्णागमो गवेन्द्रादौ सिंहे वर्णविपर्ययः। षोडशादौ विकारः स्याद्वर्णनाशः पृषोदरे // 2 // वर्णविकारनाशाभ्यां धातोरतिशयेन यः। योगः स उच्यते प्राज्ञैर्मयूरभ्रमरादिषु // 3 // मह्यां रौतीति मयूरः / भ्रमन् रौतीति भ्रमरः / व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोरिति न्यायात् पुंसोऽऽन्शब्दलोप इति सूत्रेण अन्शब्दलोप: / संयोगान्तस्य लोप इति सलोपः / पुमनुजः / स्त्र्यनुजः / निष्ठा // 693 // धातोर्निष्ठाप्रत्ययो भवति अतीते काले। क्तक्तवन्तू निष्ठा // 694 // तक्तवन्तू निष्ठासंज्ञौ भवतः। न श्रूयुवर्णवृतां कानुबन्धे // 695 // श्रयतेरुवर्णान्तस्य वृवृदन्तस्य च नेड् भवति कानुबन्धेऽसार्वधातुके। श्रितः श्रितवान् / युत: युतवान् / भूत: भूतवान् / वृत: वृतवान्। रान्निष्ठातो नोऽपृमूर्छिमदिख्याध्याभ्यः // 696 // श्लोकार्थ-वर्ण का आगम, वर्ण विपर्यय, वर्ण का विकार वर्ण का नाश और धातु का उसके अर्थ के अतिशय के साथ योग होना यह पाँच प्रकार का निरुक्त कहलाता है // 1 / / गवेन्द्र आदि में वर्ण का आगम हुआ है गो + इन्द्र ‘अवःस्वरे' सूत्र से ओ को अव आगम हुआ है अत: गधेन्द्रः बना है। 'सिंह' शब्द में वर्ण का विपर्यय हुआ है हिंस से 'सिंह' बना है। षोडश में-षष् दश से विकार होकर षोडश बना है। पृषोदर में वर्ण का नाश हआ है॥२॥ वर्ण विकार और नाश से धात में जो अतिशय आता है उसे योग कहते हैं यह मयूर भ्रमर आदि शब्दों में हुआ है ऐसा विद्वानों का कहना है // 3 // मह्यां रौति मयूरः, भ्रमन् रौति इति भ्रमरः / 'व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः' इस न्याय से मुमन्स् के अन् शब्द का लोप होकर 'संयोगान्तस्य लोप:' सूत्र से संयोगी सकार का लोप होकर 'पुमनुजः' बना। ऐसे स्त्रियं अनुजात:-स्त्र्यनुजः। अतीत काल में धातु से निष्ठा प्रत्यय होते हैं // 693 // क्त और क्तवन्तु निष्ठा संज्ञक होते हैं // 694 // कानुबंध असार्वधातुक प्रत्यय के आने पर श्रिञ् उवर्णांत और वृङ् वृञ् ऋदन्त धातु से इट नहीं होता है // 695 // __ क्त क्तवन्तु में कानुबन्ध हुआ है। श्रित: श्रितवान् / युत: युतवान् भूत: भूतवान् वृत: / वृतवन्त् की लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में वृतवान् बना ऐसे ही सर्वत्र समझना। पृ मूर्च्छि ख्या, मदि और ध्या को छोड़कर रेफ से परे निष्ठा के तकार को नकार हो जाता है // 696 //

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