________________ 342 कातन्त्ररूपमाला खशात्मने // 680 // __ कर्मण्युपपदे आत्मार्थे मन्यतेणिनिर्भवति खश्च प्रत्ययः पुंवच्च / विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी। पटुमिवात्मानं मन्यते पटुमन्यः / करणेऽतीते यजः // 681 // करणे उपपदे यजेर्णिन् भवति अतीतेऽर्थे / अग्निष्टोमेन इष्टवान् अग्निष्टोमयाजी / वाजपेययाजी। कर्मणि हनः कुत्सायाम्॥६८२॥ कर्मण्युपपद हन्तेणिनिर्भवति अतीते काले वर्तमानात् कुत्सायां / पितृघाती। मातुलघाती। क्विप् ब्रह्मभ्रणवृत्रेषु // 683 // ब्रह्मादिषूपपदेष्वतीते हन्तेः क्विय् भवति / ब्रह्माणं हन्तिस्म ब्रह्महा। भ्रूणहा। वृत्रहा। कृञः सुपुण्यपापकर्ममन्त्रपदेषु // 684 // एतेषूपपदेषु कृञ: क्विप् भवति अतीते। सुष्टु करोतिस्म सुकृत् / पुण्यकृत् / पापकृत् / कर्मकृत् / मन्त्रकृत् / पदकृत्। सोमे सञः॥६८५॥ सोमे उपपदे सुत्र: क्विप् भवति अतीते / सोमं सुनोतिस्म सोमसुत्। कर्म उपपद में होने पर आत्मा अर्थ में मनु धातु से णिन् प्रत्यय होता है और 'ख' प्रत्यय होता है पुंवद् भी होता है // 680 // विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी पटुमन्यः / करण उपपद में होने पर अतीत अर्थ में यज् से णिन् प्रत्यय होता है // 681 // अग्निष्टोमेन इष्टवान्–अग्निष्टोमयाजी, वाजपेययाजी। कर्म उपपद में होने पर अतीत काल में वर्तमान कुत्सा अर्थ में हन् धातु से णिन् प्रत्यय होता है // 682 // पितरम् हन्ति इति—पितृ घाती, “हस्य हंतेपिरिणिचोः" 367 सूत्र से ह को घ होकर 'हन्तेस्त:' सूत्र 560 से नकार को तकार हुआ है। ऐसे मातुलघाती गुरुघाती आदि बनते हैं। ब्रह्म भ्रूण और वृत्र उपपद में होने पर अतीत काल में हन् से क्विप् ह्येता है // 683 // ब्रह्माणं हंतिस्म ब्रह्महन् बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में ब्रह्महा बनेगा। ऐसे ही भ्रूणहा वृत्रहा। सु, पुण्य, पाप, कर्म, मंत्र और पद उपपद में रहने पर अतीत काल में कृ धातु से क्विप् होता है // 684 // सुष्ठु करोतिस्म सुकृत् “धातोस्तोऽन्त: पानुबंधे” सूत्र 529 से पानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर ह्रस्वान्त धातु के अंत में तकार का आगम हो जाता है। अत: कृ से तकार का आगम होकर 'कृत्' बन जाता है। ऐसे ही पुण्यकृत् पापकृत् आदि। सोम उपपद में अतीत अर्थ में 'कृ' से क्विप् होता है // 685 // सोमं सुनोतिस्म-सोमसुत्। तकार का आगम हुआ है।