________________ कृदन्तः 335 अमनुष्यकर्तृकेऽपि च वर्तमानात् हन्तेरपि टग्भवति। जायान: तिलकः। पतिघ्नी पाणिरेखा। पित्तनं घृतम् / वातघ्नं तैलं / श्लेष्माणं हन्तीति श्लेष्मलं त्रिकटुकं / अपिशब्दात् कृतघ्नः / हस्तिबाहुकपाटेषु शक्तौ // 642 // एषूपपदेषु हन्तेष्टग्भवति शक्तौ / हस्तिनं हंतीति हस्तिनः / एवं बाहुघ्नः / कपाटनः / ___ पाणिघताडयौ शिल्पिनि // 643 // एतौ शिल्पे निपात्येते / पाणिना हन्तीति पाणिघ: / ताडयः / नग्नपलितप्रियान्धस्थूलशुभगाढ्येष्वभूततद्भावे कृत्रः ख्युट करणे।।६४४ // नग्नादिषूपपदेषु अमृततद्रावेर्थे कृत्र: ख्युट् भवति करणे / अनग्नो नग्नः क्रियते अनेन नग्नकरणं द्यूतं ।एवं पलितंकरणं तैलं / प्रियंकरणं शीलं / अन्धंकरण: शोकः / स्थूलंकरणं दधि / शुभगंकरणं रूपं / आढ्यंकरणं वित्तं। भुवः खिष्णुखुकत्रो कर्तरि // 645 // नग्नादिषूपपदेषु अभूततन्द्रावे भुव: खिष्णुखुकजौ भवत: कर्तरि / अनग्नो नग्नो भवति नग्नं भविष्णुः / नग्नंभावुक: / पलितंभविष्णुः / पलितंभावुक: / प्रियंभविष्णुः / प्रियंभावुकः / अन्धंभविष्णुः अन्धंभावुकः / स्थूलभविष्णुः स्थूलंभावुकः / कर्मणि भजो विण्॥६४६ // . जायाघ्न:-तिलक, पतिघ्नी–पाणिरेखा, पित्तघ्नं–धृतं वातघ्नं–तैलं श्लेष्माणं हन्ति श्लेष्मघ्नं–त्रिकटुकं / अपि शब्दे से—कृतं हन्ति-कृतघ्नः।। - हस्ति बाहु कपाट के उपपद में होने पर शक्ति अर्थ में हन् से टक् प्रत्यय होता है // 642 // हस्तिनः, बाहुघ्नः, कपाटघ्नः / शिल्पी अर्थ में पाणिघ और ताडघ निपात से सिद्ध होते हैं // 643 // . पाणिना हन्ति–पाणिघ:, ताडघ: / नग्न, पलित, प्रिय, अन्ध, स्थूल, शुभग, आढ्य, उपपद में रहने पर अभूत तद्भाव अर्थ में 'कृ' धातु से करण से 'ख्युट्' प्रत्यय होता है // 644 // . . अभूततद्भाव-जो जैसा नहीं है उसका वैसा होना। अनग्न: नग्नः क्रियते अनेन—जो नग्न नहीं है वह इससे नग्न किया जाता है। नग्नंकरणं-जूआ। पलितंकरणं-तैलं-'युवुलामनाकान्ता' से यु को अन हुआ है। प्रियंकरणं-शीलं / अप्रिय को प्रिय करने वाला शील अन्धकरणं-शोक: चक्षु सहित को भी शोक अन्धा करने वाला है। ये नग्न आदि उपपद में रहने पर अभूत तद्भाव अर्थ में 'भू' धातु से कर्ता में खिष्णु और खुकञ् प्रत्यय होते हैं // 645 // खिष्णु में खानुबंध और खुकञ् में खजानुबंध होते हैं खानुबंध से अनुस्वार होता है। अनग्नो नग्नो भवति गुण अव् होकर नग्नंभविष्णुः, नग्नं भावुक: / आनुबंध से वृद्धि हुई है और आव् हुआ इत्यादि। कर्म में भज् से 'विण्' प्रत्यय होता है // 646 //