________________ 337 कृदन्त: विटि च वनि च प्रत्यये परे पञ्चमान्तस्याकारो भवति / उदधिका: / अग्रेगा: / विषखा: / गोषाः / अब्जजा:। अतो मन् क्वनिप्वनिप्विचः // 654 // आकारान्ताद्धातोर्मन् क्वनिप् वनिए विच् एते प्रत्यया भवन्ति / मन् सुष्ठु ददातीति सुदामा / अश्व इव तिष्ठतीति अश्वत्थामा। क्वनिप् / सुपीवा / सुधीवा। वनिप् / भूरिदावा / घृतपावा। विच् / क्षीरपा: / सर्वापहारी प्रत्ययलोपः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते // 655 // अन्येभ्योपि धातुभ्य एते प्रत्यया दृश्यन्ते / मन् कृतवर्मा / क्वनिप् / इण गतौ / प्रातरेति प्रातरित्या। वनिप् यज्वा। विच्–त्विष हिंसायां त्विट् / क्विप्॥६५६॥ धातो: क्विप् दृश्यते / उखाया: स्रंसते उखासत् / पर्णध्वत् / वः क्वौ॥६५७॥ वेब: सम्प्रसारणं दीर्घमापद्यते क्वावेव / ऊ: उवो उव: / उदधिं काम्यति = उदधिका, अन्त के पंचम अक्षर को आकार होकर संधि हो गई है / अग्रे गच्छति अग्रेगा: विषं खनति = विषखा: खवति गोषा' / अब्जं जनयति अब्जजाः। आकारांत धातु से मन्, क्वनिप् और विच् ये प्रत्यय होते हैं // 654 // मन्–सुष्ठु ददाति-सुदामन् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर सुदामा बना। अश्व इव तिष्ठति-अश्वत्थामा, यहाँ सकार को तकार हुआ है वह 'लुवर्ण तवर्गलसादन्त्या:' न्याय से स् को द् होकर प्रथम अक्षर हुआ है। क्वनिप-कप् और इकार अनुबंध है अत: सुपावन् रहा 'दामागायति' इत्यादि १६४वें सूत्र से ईकार होकर सुपीवन् बना, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में सुपीवा बना। ऐसे ही सुधीवन् से सुधीवा बना है। क्वनिप् में कानुबंध होने से 502 सूत्र से यणवत् कार्य होता है। वनिप् में-भूरिदावन् = भूरिदावा, घृतपावा विच में-क्षीरं पिबतीति-क्षीरपा: विच् प्रत्यय का सर्वापारी लोप होता है। अन्य धातु से भी ये प्रत्यय देखे जाते हैं // 655 // - मन् से-कृतवर्मा, क्वनिप् से—इण् गति अर्थ में है प्रात: एति-प्रातरित्वा / वनिप् यज्वा। विच् में त्विष्–हिंसा अर्थ में है 'त्विट्' बना है। धातु से क्विप् प्रत्यय होता है // 656 // उखाया: स्रंसते = उखाश्रम लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति से रूप बना उखाश्रत् पणानि ध्वंसते= पर्णध्वत्। क्विप् प्रत्यय के आने पर वेज् का संप्रसारण दीर्घ हो जाता है // 657 // . वे-ऊ बना रूप चलने से ऊ: उवौ उव: क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है। १.गां पृथ्वी षनोतीति गोषा।