________________ कृदन्तः 317 ऋदुपधाच्चाकृपिघृतेः // 530 // कृपि चूति वर्जित ऋकारोपधाद्धातो: क्यप् भवति / वृत्यं नृत्यं दृश्यं स्पृश्यं / भृञोऽसंज्ञायाम्॥५३१॥ भृज असंज्ञायां क्यप् भवति / भ्रियत इति भृत्यः / ग्रहोऽपिप्रतिभ्यां वा / / 532 // अपिप्रतिभ्यां परात् ग्रहे: क्यब् भवति वा / अपिगृह्यं / अपिग्राह्यं / पक्ष्ये घ्यण् / प्रतिगृह्यं प्रतिग्राह्यं / पदपक्ष्ययोश्च // 533 // पदपक्ष्ययोरर्थयोहे: क्यब् भवति / पक्षे भव: पक्ष्यः / प्रगृह्यं पदं / पक्षे अर्जुनगृह्या सेना। , वौ नीपूभ्यां कल्कमुञ्जयोः // 534 // वावुपपदे नीपूञ्भ्यां कल्कमुञ्जयोरर्थयो: क्यप् भवति / विनीय: कल्क: / विपूयो मुञ्जः / . कृवृषिमृजां वा / / 535 // कृञादिभ्यो वा क्यप् भवति / कृत्यं कार्यं / वृष वृक्ष सेचने / वृष्यं / वष्यं / मृज्यं / मयं / मजो मार्जिः // 536 // मृजु इत्येतस्य धातोर्मार्जिरादेशो भवति / चजो: कगौ धुडघानुबन्धयोरिति जकारस्य गकारः // मायं मायें। कृप् नृत् को छोड़कर ऋकार उपधा वाली धातु से क्यप् होता है // 530 // ह्रस्वान्त से तकारागम होकर वृत्यं, नृत्यं बना आगे दृश्-दृश्यं, स्पृश्-स्पृश्यं बना। संज्ञा रहित अर्थ में भृज् से क्यप् होता है // 531 // भ्रियते इति भृत्यः। अपि प्रति से परे ग्रह धातु से व्यप् प्रत्यय विकल्प से होता है // 532 // अपिगृह्यं, संप्रसारण होकर र् को क्र हुआ है। अन्यथा अपिग्राह्यं इसमें घ्यण् प्रत्यय हुआ है। ऐसे ही प्रतिगृह्यं प्रतिग्राह्यं / . पद और पक्ष्य अर्थ में ग्रह से क्या होता है // 533 // पक्षे भव: पक्ष्य:-प्रगृह्यं पदं प्रगृह्यय को पद कहते हैं। पक्ष में अर्जुनगृह्या सेना अर्जुन के पक्ष को ग्रहण करती है। 'वि' उपपद से कल्क मुञ्ज अर्थ में नी पूब् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है // 534 / / विनीयः, कल्कः / विपूय: / मुञ्जः। कृ वृष मृज धातु से विकल्प से क्यप् होता है // 535 // कृत्यं तकार का आगम हुआ है वृष्यं वयं / मृज्यं मयं / ___मृज धातु को मार्न आदेश होता है // 536 // ... “चजो: कगौ”–इत्यादि 542 सूत्र से जकार को गकार हो गया। मायं, मायँ /