________________ कृदन्तः 325 उषिधिनीणोश्च // 578 // रंजे: पञ्चमो लोप्यो भवति उषिघिनिणो: परत: // रज्यते इत्येवं शिल्पमस्य // रजक: रजकी। गस्थकः // 579 // गायते: शिल्पिन्यर्थे थको भवति / गाथकः / गाथकी। ण्युट च // 580 // गायते: शिल्पिन्यर्थे ण्युट् च भवति / गायन: गायनी / हः कालवीह्योः // 581 // जहाते: काले व्रीहौ चार्थे ण्युङ् भवति / जहाति काले भावानिति हायन: संवत्सरः। जहत्युदकमिति हायना व्रीहयः। - आशिष्यकः॥५८२॥ आशिषि गम्यमाने धातोरकप्रत्ययो भवति / जीव प्राणधारणे / जीवतात् जीवकः / एवं नन्दकः / प्रस्नुसृल्वां साधुकारिणि // 583 // एषां साधुकारिण्यर्थे अक: प्रत्ययो भवति। साधुकरणं शिल्पमेव। च्युङ् छ्युङ् पुङिति दण्डकधातुः / साधु प्रवते साधुप्रवकः / एवं स्रवकः / सरकः / लवकः / साधु सरतीति / साधु लुनातीति / सृ गतौ / इत्यादि। कर्मण्यण्॥५८४॥ उष् घिनी, ण् से परे रंज के पंचम अक्षर का लोप हो जाता है // 578 // रंगना यह है काम जिसका रजक: रजकी। गा धातु से शिल्पी अर्थ में थक प्रत्यय होता है // 579 // गाथक: गाथकी। ..... गा धातु से शिल्पी अर्थ में ण्युट् प्रत्यय भी होता है // 580 // गायन: गायनी 559 से 'यु' को अन आदेश हुआ है। ओहाक् धातु से काल और ब्रीहि अर्थ में ण्युङ् प्रत्यय होता है // 581 // जहाति काले भावान् इति ‘हायन:' संवत्सर: 'आपिरिच्यादतानां' से आय हुआ है जो उदक को छोड़ते हैं हायना: ब्रीह्यः / __ आशिष् अर्थ में धातु से अक प्रत्यय होता है // 582 // जीव—प्राण धारण करना जीवतात् = जीवक: नंदक: इत्यादि / * त्रु लु से परे साधुकरण अर्थ में अक प्रत्यय होता है // 583 // साधुकरण शिल्प ही है / च्युङ् छयुझुङ् ये दण्डक धातु हैं। साधु प्रवते = साधु प्रवकः, स्रवकः, सरकः, लवकः / साधु सरतीति साधु लुनातीति / सृ-गमन करना / इत्यादि / कर्म उपपद में रहने पर धातु से अण् प्रत्यय होता है // 584 //