________________ 312 कातन्त्ररूपमाला वेत्तेः शन्तुर्वन्सुः // 50 // विद: परस्य शन्तुर्वन्सुर्भवति / विद्वान् विद्वान्सौ / क्वन्सुकानो परोक्षावच्च // 501 // धातो: परोक्षास्वरूपौ क्वन्सुकानौ भवतः // क्वन्सु परस्मै कान आत्मनेपदं भवति। के यण्वच्च योक्तवर्जनम्॥५०२॥ कानुबन्धे कृति परे यण्वत्कार्यं भवति योक्तं वर्जयित्वा। इति न गुण: / बभूवान् बभूवान्सौ बभूवान्स:। एधाञ्चक्रिवान्। एधाञ्चक्राण:। अत्र नाम्यादेर्गुरुमत इत्यादिना आम: कृञ् प्रयुज्यते इत्यनुप्रयोग: / पेचिवान् पेचान: / चक्रिवान् चक्राणः / / . खोळञ्जनेऽये // 503 // धातोर्यकारवकारयोर्लोपो भवति यकारवर्जिते कृति व्यञ्जने परे / क्नूयी शब्दे / चुक्न्ावान् / मायी विधूनने / चक्ष्मावान् / दिव् क्रीडादौ / दिदिवान् / षिवु तन्तुसन्ताने / सिषिवान् / ष्ठिवु क्षिवु निरसने। तिष्ठिवान् / चिक्षिवान्। कर्मणि प्रयोग में—वाच्य के समान तीनों लिंग और एक द्वि बहुवचनं भी होते हैं। यथा-पच्यमान: औदन: पच्यमानौ ओदनौ, पच्यमाना: ओदनाः / क्रियमाणः। . विद् के परे शन्तृ को वन्स् आदेश हो जाता है // 500 // अत: विद्वन्स् बना / लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्ति में विद्वान् विद्वांसौ विद्वान्सः / धातु से परोक्षा अर्थ में क्वंसु कान प्रत्यय होते हैं // 501 // क्वन्सु परस्मैपद में एवं कान प्रत्यय आत्मनेपद में होता है। कानुबन्ध कृत् प्रत्यय के आने पर योक्त को छोड़कर यणवत् कार्य होता है // 502 // ___ इससे गुण नहीं होता है। भू क्वन्स् में वन्स् रहता है। ‘चण् परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' 292 सूत्र से द्वित्व होकर भू भू वन्स् / 'पूर्वोभ्यास:' 151 सूत्र से अभ्यास संज्ञा होकर 'भवतेर:' इस ३०५वें सूत्र से अभ्यास को अकार होता है। “द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयौ” 159 सूत्र से तृतीय अक्षर होकर बभवन्स बना 'कत्तद्धितसमासाश्च' सत्र से लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आंकर 'बभवान' ऐसे ही एध धातु से आम् कृ का प्रयोग होकर 'कान' प्रत्यय होकर एधाञ्चक्राण: / यहाँ पर 'नाग्न्यादेर्गुरुमत:' इत्यादि सूत्र से आम् से कृ धातु का प्रयोग होता है। पेचिवन्स् पेचान बनकर लिंग संज्ञा होकर और सि विभक्ति आने पर पेचिवान् पेचान: / चक्रिवान् / चक्राणः / क्नूयी-शब्द करना / क्नूय क्नूय वन्स् न का लोप होकर 'कवर्गस्य चवर्ग:' 293 सूत्र से चवर्ग होकर 294 सूत्र से ह्रस्व होकर चुक्नूय वन्स् रहा। यकार वर्जित कृत्प्रत्यय के आने पर धातु के यकार वकार का लोप हो जाता // 503 // यकार का लोप होकर चूक्नूवन्स् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'चुक्नूवान्' बना। क्ष्मायी-कँपना / उपर्युक्त सूत्र से यकार का लोप होकर चक्ष्मावान् बना। दिव्-क्रीड़ा आदि / दिदिवान् / षिवु-सिषिवान् / तिष्ठिवान् चिक्षिवान् / गम् वन्स् द्वित्व होकर गम् गम् वन्स् कवर्ग को