________________ 282 कातन्त्ररूपमाला अथाद्यतन्या: क्वचिद्विशेष: उच्यते इजात्मनेपदे प्रथमैकवचने // 359 // पद्धातोरिज्भवति कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे प्रथमैकवचने परे। इचस्तलोपः // 360 // इच: परस्तलोपो भवति। उदपादि उदपत्सातां उदपत्सत। उदपत्था: उदपत्साथां उदपद्ध्वं / .. उदपत्सि उदपत्स्वहि उदपत्स्महि / समपादि। दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्यो वा॥३६१ // एभ्यो वा इज भवति कर्त्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे प्रथमैकवचने परे / दीपी दीप्तौ / अदीपि अदीपिष्ट। : . जनिवध्योश्च // 362 // जनिवध्योरुपधाभूतस्य दीर्घस्य ह्रस्वो भवति इचि परे / जनी प्रादुर्भावे / अजनि अजनिष्ट / अवधि अवधिष्ट। बुध अवबोधने / अबोधि / अबुद्ध / हचतुर्थान्तस्य धातोस्तृतीयादेरादिचतुर्थत्वमकृतवत् / अभुत्सत् अभुत्साताम् अभुत्सत / पूरी आप्यायने। अपूरि / ताय सन्तानपालनयोः / स्फायी ओप्यायी वृद्धौ / अतायि अतायिष्ट / अप्यायि अप्यायिष्ट / इति विशेषः। भावकर्मणोरद्यतन्यादयः प्रदर्श्यन्ते। . भावकर्मणोश्च // 363 // अथ अद्यतनी में कुछ विशेषता बताई जाती है। अद्यतनी के आत्मनेपद में प्रथमा के एकवचन में कर्ता में पद् धातु से इच् होता है // 359 // इच से परे 'त' का लोप हो जाता है // 360 // उत् अपादि =उदपादि + उदपत्सातां उदपत्सत। उदपत्था: उदपत्साथां उदपद्ध्वं उदपत्सि उदपत्स्वहि उदपत्स्महि / समपादि। दीप, जन, बुध पूरि, तायि, प्यायि धातु से प्रथमैकवचन में विकल्प से इच् होता है // 361 // दीपी-दीप्त होना। अदीपि / इच् के अभाव में-अदीपिष्ट। इच के आने पर जन् और वध की उपधा को ह्रस्व हो जाता है // 362 // जनी-प्रादुर्भावे। अजनि अजनिष्ट / अवधि, अवधिष्ट / बुध-अवबोधन करना। अबोधि, अबुद्ध “हचतुर्थांतस्य धातोस्तृतीयादेरादिचतुर्थत्वमकृतवत्” सूत्र से तृतीय को चतुर्थ अक्षर होकर अभुत्सत् / पूरी-पूर्ण करना / अपूरि / ताय-सन्तान और पालन अर्थ में है / स्फायी, ओप्यायीवृद्धि अर्थ में हैं / अतायि, अतायिष्ट / अप्यायि, अप्यायिष्ट। इस प्रकार से विशेष प्रकरण हुआ। भाव और कर्म में अद्यतनी आदि को दिखाते हैं। भाव और कर्म में सभी धातु से इच् होता है // 363 //