________________ तिङन्त: 269 नित्यात्वतां स्वरान्तानां सृजिदृशोश्च वेट् थलि। ऋचि नित्यानिटः स्युश्चेद् वृव्येझं नित्यमिट् थलि / / इत्येषामिड् वा भवति थलि परे। थलि च सेटि॥३१४॥ अनादेशादेर्धातोरेकव्यञ्जनमध्यगतस्य अस्य एत्वं भवत्यभ्यासलोपश्च सेटि थलि परे। पेचिथ पपक्थ पेचथुः पेच। अट्युत्तमे वा // 315 // उपधाया अस्य दीपो भवति अन्त्यानां नामिनां च वृद्धिर्भवति वा परोक्षायामुत्तमपुरुषेऽटि परे / पपाच पपच। सृवृभृगुस्तुश्रुव एव परोक्षायाम् // 316 // एषामेव न इट् भवति परोक्षायामन्येषां भवत्येव / इति स्रादिनियमादिट् / पेचिव / पेचिम / पेचे पेचाते पेचिरे / पेचिषे पेचाथे पेचिध्वे / पेचे पेचिवहे पेचिमहे / अस्यैकव्यञ्जनमित्युपलक्षणम् / उपलक्षणं किं ? स्वस्य स्वसदृशस्य च ग्राहकमुपलक्षणम् / इत्याकारस्यानेकव्यञ्जनस्यापि क्वचित् / राध् साध् संसिद्धौ। . राधो हिंसायाम्॥३१७॥ हिंसार्थस्य राध एत्वं भवति अभ्यासलोपश्च परोक्षायामगुणे। अपरराध अपरेधतुः अपरेधुः / इत्यादि / हिंसायामिति किं ? आरराध आरराधतुः / इत्यादि // ___इस श्लोक से थल के आने पर इस पच् में इट् विकल्प से होता है। इट् सहित थल के आने पर आदेश रहित धातु के एक व्यंजन मध्यगत अकार को एकार हो जाता है // 314 // और अभ्यास का लोप हो जाता है। पेचिथ, पपक्थ / परोक्षा के उत्तम पुरुष अट् के आने पर उपधा के अकार को विकल्प से दीर्घ होता. है // 315 // और अन्त्य नामिको वृद्धि हो जाती है। पपाच, पपच। सृ वृ भृ स्रु द्रु स्तु और श्रु इन धातु से परोक्षा में इट् नहीं होता है // 316 // अन्य धातु से इट हो जाता है। इस सूत्र के नियम से पच् में इट् हो जाता है पेचिव, पेचिम / आत्मनेपद में—पेचे, पेचाते इस पच् में एक व्यंजन जो कहा है वह उपलक्षण है / उपलक्षण किसे कहते हैं ? अपने और अपने सदृश को ग्रहण करने वाला उपलक्षण कहलाता है। इस प्रकार से अनेक व्यंजन वाले आकार को भी कहीं पर हो जाता है। जैसे—राध् साध-सिद्धि अर्थ में हैं। हिंसा अर्थ में राध धातु को 'एत्व' हो जाता है और परोक्षा के अगुण विभक्ति में अभ्यास का लोप हो जाता है // 317 // अपरराध, अपरेधतुः अपरेधुः / हिंसा अर्थ में हो ऐसा क्यों कहा ? आरराध, आरराधतुः आरराधुः / इत्यादि।