________________ समास: 151 स चतुर्विधः / तत्पुरुषबहुव्रीहिद्वन्द्वाव्ययीभावभेदात् / पुनरुत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः / अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः / सर्वपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः / पूर्वाव्ययपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः / इति चतुर्विधः / स च यथाक्रमं प्रदर्श्यते / सुखं प्राप्त: / गुणान् आश्रितः / इति स्थिते विभक्तयो द्वितीयाद्या नाम्ना परपदेन तु। समस्यन्ते समासो हि ज्ञेयस्तत्पुरुषः स च // 1 // द्वितीयादिविभक्त्यन्तं पूर्वपदं नाम्ना परपदेन सह यत्र समस्यते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञको भवति / तत्स्था लोप्या विभक्तयः॥४२१॥ तस्मिन् समासे स्थिता विभक्तयो लोप्या भवन्ति। प्रकृतिश्च स्वरान्तस्य // 422 // लुप्तासु विभक्तिषु स्वरान्तस्य व्यञ्जनान्तस्य च लिङ्गस्य प्रकृतिर्भवति / चकारात्क्वचित्सन्धिर्भवति / कृत्तद्धितसमासाश्च // 423 // कृत्तद्धितसमासाश्च शब्दा लिङ्गसंज्ञा भवन्ति / सुखप्राप्त: / गुणाश्रितः / एवं ग्रामं गत:-ग्रामगतः / एवं स्वर्गं गतः-स्वर्गगतः / तृतीया-दना संसृष्टः-दधिसंसृष्टः / धान्येन अर्थ: / धान्यार्थः / यलेन् कृतं—यत्नकृतं। चतुर्थी-कुबेराय बलि:-कुबेरबलि:। यूपाय दारु-यूपदारु। देवाय सुखं-देवसुखं। पञ्चमी-चौराद्भयं-चौरभयं। ग्रामानिर्गत:-ग्रामभिर्गतः। षष्ठी-चन्दनस्य गन्ध:-चन्दनगन्धः। राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः। फलानां रस:-फलरस:। सप्तमी-व्यवहारे कशल:-व्यवहारकशल:। काम्पिल्ये सिद्ध:-काम्पिल्यसिद्धः। धर्मे नियत:-धर्मनियतः। एवं मोक्षसुखम्। संसारसुखम् / इत्यादि / प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया // प्रादयः शब्दा: गताद्यर्थे प्रथमया सह यत्र समस्यंते स समासस्तुत्पुरुषसंज्ञे भवति प्रगत आचार्य: प्राचार्य: अभिगतो मुखं अभिमुखं, प्रतिगतोऽक्षं प्रत्यक्षमित्यादि / विश्वमतिक्रान्तः / इति विग्रहे श्लोक श्लोकार्थ लिंग रूप पर पद के साथ द्वितीया आदि विभक्तियों का जो समास किया जाता है, वह समास तत्पुरुष समास कहलाता है। द्वितीयादि विभक्ति है अंत में जिसके ऐसे पूर्वपद का नामवाची पर पद के साथ जो समास किया * जाता है वह समास 'तत्पुरुष' संज्ञक है। सुख + अम्, प्राप्त + सि उस समास में स्थित विभक्तियों का लोप हो जाता है // 421 // विभक्तियों के लोप हो जाने पर स्वरांत और व्यञ्जनान्त लिंग प्रकृति रूप रहते हैं // 422 // चकार से कहीं संधि हो जाती है। अत: सुखप्राप्त, गुणाश्रित, रहा। कृदन्त, तद्धित और समास शब्द लिंग संज्ञक हो जाते हैं // 423 // इस सूत्र से लिंग संज्ञा होने के बाद पुन: क्रम में 'सि' आदि विभक्तियाँ आयेंगी और पूर्ववत् लिंग प्रकरण के समान इनके रूप चलेंगे। यथा-सुखप्राप्त + सि, गुणाश्रित + सि है "रेफसोर्विसर्जनीय:" सूत्र से स् का विसर्ग होकर 'सुखप्राप्त: गुणाश्रित:' बना। इसी प्रकार से 'ग्रामं गत: ग्रामगतः, स्वर्ग गत:-स्वर्गगत:' बन गया है।