________________ - 192 कातन्त्ररूपमाला च्वौ चावर्णस्य ईत्वम्॥ 560 // अवर्णस्य ईत्वं भवति च्वौ परे। सर्वापहारी प्रत्ययस्य लोपः। च्चिप्रत्यये परे पूर्वस्वरस्य दीर्घः शुक्लीकरोति। दीर्घाभवति.। पुत्रीस्यात् / पटुस्यात्। कवीकरोति। कवीभवति। कवीस्यात् / मात्रीकरोति / मात्रीभवति / मात्रीस्यात् / ऊर्श्वे दनवयसटौ च // 561 // ऊर्ध्ववाचिनि प्रमाणेऽर्थे दनवयसटौ प्रत्ययौ भवत: / चशब्दान्मात्रट् भवति / ऊरु: प्रमाणमस्य ऊरुदघ्नं / ऊरुद्वयसं / ऊरुमात्रमुदकं / हस्तिपुरुषादण च // 562 // हस्तिन् पुरुष इत्येताभ्यां मानेऽर्थेऽण् भवति / चशब्दान्मात्रट् दघ्नट् द्वयसट् च भवंति / हस्ती प्रमाणमस्य हास्तिनं / हस्तिमात्रं / हस्तिदनं। हस्तिद्वयसं। पुरुष: प्रमाणमस्य पौरुषं / पुरुषमात्र / पुरुषदनं / पुरुषद्वयसम् / उदकमित्यर्थः / प्रस्रतवत्तेर्मयट् // 563 // प्रस्रुतवृत्तेर्नाम्नः परो मयट् प्रत्ययो भवति / सुवर्णं प्रसुतं सुवर्णमयं / एवमन्नं प्रस्रुतमन्नमयं / भस्ममयं / यदि वा अनं प्रस्रुतमत्र अन्मय: काय: / अनं प्रस्रुतमत्र अत्रमयं जीवनं / भस्म प्रस्रुतमत्र भस्ममयं पाकस्थानं / भस्ममयो मठः / भस्ममयी तपस्विनी / भस्ममयी तनुः / च्चि प्रत्यय के आने पर अवर्ण को 'ई' हो जाता है // 560 // एचं 'वि' प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है / च्चि प्रत्यय से परे पूर्व के अवर्ण को तो 'ई' होता है तथा पूर्व के अन्य स्वरों को दीर्घ हो जाता है। अत: शुक्लीभवति अदीर्घोदी? भवति इति दीर्घा भवति, अपुत्र: पुत्र: स्यात् इति पुत्रीस्यात् इनमें अवर्ण को 'ई' हुआ है। अफ्टुः पटुः स्यात् इति पटूस्यात यहाँ पूर्वस्वर को दीर्घ हुआ है / ऐसे ही अकवि: कवि: स्यात् = कवीस्यात्, अकविं कविं करोति इति कवीकरोति / मात्रीकरोति, मात्रीभवति, मात्रीस्यात् इत्यादि रूप बन गये। ऊर्ध्ववाची मान अर्थ में 'दघ्नट्' और 'द्वयसट्' प्रत्यय होते हैं // 561 // चकार से मात्रट प्रत्यय भी होता है। उरु प्रमाणं अस्य उरुदघ्नं, उरुद्वयसं, उरुमात्र बन गये। नदी, तालाब आदि के जल के मापने अर्थ में ये प्रत्यय होते हैं। __ हस्तिन् और पुरुष शब्द से मान अर्थ में 'अण्' होता है // 562 // च शब्द से मात्रट, दघ्नट् द्वयसट् प्रत्यय भी होते हैं। हस्ती प्रमाणं अस्य हस्तिन् + सि विभक्ति का लोप होकर णानबन्ध से पर्व स्वर को वृद्धि होकर हास्तिनं, हस्तिदनं, हस्तिद्वयसं. हस्तिमात्रं बन गये। ऐसे ही परुषः प्रमाणं अस्य है-परुष+सि विभक्ति का लोप होकर णानबंध से वद्धि होकर पौरुषं, पुरुषमात्रं, पुरुषदनं, पुरुषद्वयसं बन गये। प्रमाणसूचक शब्द जल आदि के लिये हैं। प्रस्रुतवृत्ति वाले शब्द से परे 'मयट्' प्रत्यय होता है // 563 // सुवर्णं प्रस्रुतं सुवर्ण+सि विभक्ति का लोप होकर सुवर्णमयं बना / ऐसे ही अन्नं प्रस्रुतं = अन्नमयं, भस्ममयं अथवा अनं प्रस्रुतं अत्र अन्नमय: काय:, अन्नं प्रस्रुतं अत्र अन्नमयं जीवनं, भस्मप्रस्रुतं अत्र भस्ममयं पाकस्थानं भस्ममयो मठ, भस्ममयी तपस्विनी, भस्ममयी तनुः / तीनों लिंगों में बन जाते हैं।