________________ तिङन्त: 263 अलोपे समानस्य सन्वल्लघुनीनि चण्परे // 296 // समानस्यालोपे सति लघुनि धात्वक्षरे अभ्यासस्य सन्वत्कार्यं भवति इनि चण्परे / किं सन्वत्कार्यं ? सन्यवर्णस्य // 297 // अभ्यासावर्णस्य इत्वं भवति सनि परे। अपीपलत् अपीपलतां अपीपलन् / अलोपे समानस्येति किं ? अदन्ताः कथं वाक्यप्रबन्धे इत्यादयः। . धातोश्च // 298 // अनेकाक्षरस्य धातोरन्ते स्वरादेलोपो भवति इनि परे / अचकथत् अचकथतां अचकथन् / एवं रच प्रयत्ने / व्यररचत् व्यररचतां व्यररचन् / इत्यादि / समानस्येति किम् ? पटुमाचष्टे पटुं करोति तत्करोति तदाचष्टे इति इन्। अपीपटत्। वृद्धौ सन्ध्यक्षरलोप:। रूप रूपक्रियायां। व्यरुरूपत् व्यरुरूपतां व्यरुरूपन् / लघुनि धात्वक्षरे इति किं ? तर्ज भर्त्स सन्तर्जने। अततर्जत अततर्जेतां अततर्जन्त / संयोगविसर्गानुस्वारपरोऽपि गुरु: स्याद् ह्रस्व: / अबभर्त्सत अबभत्र्सेताम् अबभर्त्सन्त / वृङ् वरणे / अवीवरत् अवीवरतां अवीवरन् / अततन्त्रत् / स्वरादेर्द्वितीयस्य // 299 // स्वरादेर्धातोर्द्वितीयावयवस्य द्विवचनं भवति / तत्र च। न नबदराः संयोगादयोऽये // 300 // स्वरादेर्धातोर्द्वियीयावयवस्य संयोगादयो नबदरा न द्विरुच्यन्ते न तु ये परे / अर्च पूजायां / आर्चिचत् आर्चिचतां आर्चिचन् / एवं अर्ह पूजायां / आर्जिहत् / . . समान के अलोप होने पर लघु धात्वक्षर के आने पर अभ्यास को सन्वत् कार्य होता है इन् चण् के आने पर // 296 // सन्वत् कार्य क्या है ? __सन् के आने पर अभ्यास के अकार को इकार हो जाता है // 297 // अपीपलत् / अलोप में असमान को ऐसा क्यों कहा ? अदन्त धातु में 'कथ'-कहता है। इन् के आने पर अनेकाक्षर धातु के अंत स्वर का लोप हो जाता है // 298 // अचकथत् / रच-प्रयत्न करना-अररचत् = व्यररचत् / समानस्य ऐसा क्यों कहा ? पटुं आवष्टे, पटुं करोति है “तत्करोति तदाचष्टे इन्” इस सूत्र से इन् होकर द्वित्व होकर अपीपटत् / वृद्धि में संध्यक्षर का लोप हो जाता है। रूप-धातु रूप क्रिया अर्थ में है / व्यरु रूपत्-अभ्यास को ह्रस्व हुआ है। लघु धात्वक्षर में ऐसा क्यों कहा है ? तर्ज भर्स-संतर्जन करना अततर्जत / ‘संयोगविसर्गानुस्वार परोपि' से गुरु ह्रस्व हो गया अवभर्त्सत / वृङ् वरण अर्थ में है। अवीवरत् / अततन्त्रत् / स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव को द्वित्व होता है // 299 // और उसमें स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव के संयोगादि 'न ब द र' अक्षर द्वित्व नहीं होते हैं और य प्रत्यय के परे भी द्वित्व नहीं होते हैं // 300 // . अर्च-पूजा करना। अर्च च त् ‘सन्यवर्णस्य' सूत्र 297 से इकार होकर आर्चिचत् / अर्हपूजा योग्य है-आर्जिहत्।