________________ तिङन्तः 231 नाम्यन्तानां यणायियन्नाशीश्च्विचेक्रीयितेषु दीर्घः // 162 // नाम्यन्तानां धातूनां दीपो भवति यणादीनां ये च्वौ च परे / हूयते / अदाब दाधौ दा // 163 // डुदाञ् दाने। दाण् दाने। दो अवखण्डने। देङ् रक्षणे। एते चत्वारो दारूपाः। डुधाञ् धारणपोषणयोः / धेट पा पाने इत्येतौ धारूपौ। दाप् लवने, दैप शोधने इत्येतौ वर्जयित्वा दाधा इत्येतौ दासंज्ञौ भवत: / .. दामागायति पिबति स्थास्यति जहातीनामीकारो व्यञ्जनादौ // 164 // दासंज्ञकमारूपकगायतिपिबतिस्थास्यतिजहातीनामन्तस्य ईकारो भवति व्यंजनादावगुणे सार्वधात्के परे / दीयते / धीयते। माङ् माने शब्दे च। मीयते मीयेते मीयन्ते / कै गै रै शब्दे / गीयते / पीयते / ष्ठा गतिनिवृत्तौ / निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः / स्थीयते / षो अन्तकर्मणि / अवसीयते / ओहाक् त्यागे। हीयते / जुहुयात् जुहुयातां जुहुयुः / धेट पा पाने / दध्यात् दध्यातां दध्युः / दधीत दधीयातां दधीरन् / जुहोतु जुहतात् जुहुतां जुह्वतु / जुहुधि जुहुतात् जुहुतं जुहुत / जुहवानि जुहवाव जुहवाम / मिमीत मिमीयाताम् मिमीरन् / मिमीतां मिमातां मिमतां / मिमीष्व मिमाथां मिमीध्वं / मिमै मिमावहै मिमामहै / बिभर्तु बिभृतां विभ्रतु / बिभृतां बिभ्रातां बिभ्रतां / दधातु धत्तात् धत्तां दधतु / अभ्यस्तानामकारस्य इति लोपे प्राप्ते / “लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशो विधिर्बलवान्” इति स्वरादेशो भवति / दास्त्योरभ्यासलोपश्च // 165 // नाम्यन्त धातु को यण् आदि प्रत्यय, च्चि प्रत्यय के आने पर दीर्घ हो जाता है // 162 // हु य ते = हूयते। दाप् देप् को छोड़कर दा धा, धातु 'दा' संज्ञक होते हैं // 163 // डुदाञ्-दान देना, दाण्-दान देना, दो-खंड करना, देङ्-रक्षा करना, ये चार धातु दा रूप हैं। डुधाब्-धारण पोषण करना, धेट् पा-पीना ये दो धातु धारूप हैं। दाप-काटना, दैप् शोधन करना। इन दो धातुओं को छोड़कर उपर्युक्त दा, धा रूप धातु 'दा' संज्ञक होते हैं। . व्यंजनादि अगुण सार्वधातुक विभक्ति के आने पर दा, मा, गा, पा, स्था, हा धातु के अन्त को ईकार हो जाता है // 164 // अत: दीयते, धीयते, मीयते बन गये। कै गै रै, धातु शब्द करने अर्थ में हैं। गीयते, पा—पीयते। ष्ठा-ठहरना / 'धात्वादेः ष: स:' सूत्र से सकार होने से निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो गया अत: ठकार को थकार होकर स्था रहा स्थीयते / षो अंत करना—अवसीयते / ओहाक् त्याग करना, हीयते / इत्यादि। सप्तमी में-जुहुयात् / दध्यात् / दधीत 158 से आकार का लोप हुआ है। जुहोतु / जुहुधि / उत्तम पुरुष में गुण होकर जुहवानि जुहवाव जुहवाम। मितीत, मिमीयातां मिमीरन् / मिमीतां / बिभर्तु / बिभृतां / दधातु / 'धा धा हि' 'अभ्यस्तानामाकारस्य' सूत्र से अभ्यस्त के आकार का लोप प्राप्त था किंतु लोप और स्वर के आदेश में स्वर के आदेश की विधि बलवान् होती है इस न्याय के अनुसार___'हि' विभक्ति के आने पर दा संज्ञक और अस् धातु के अन्त को 'ए' होकर अभ्यास का लोप हो जाता है // 165 //