________________ तिङन्त: 235 अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनः स्वरे गुणिनि सार्वधातुके // 181 // अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनो गणो न भवति स्वरादौ गणिनि सार्वधातके परे / नेनिजानि नेनिजाव नेनिजाम / अनेनेक् अनेनिक्तां अनेनिजुः / अनेनेक् अनेनिक्तं अनेनिक्त / अनेनिजं अनेनिज्व अनेनिज्म / वेवेक्ति वेविक्त: वेविजति / वेविज्यात् वेविज्यातां वेविज्युः / वेवेक्तु वेविक्तात् वेवितां वेविजतु / वेविग्धि / अवेवेक् अवेवितां अवेविजुः / वेवेष्टि वेविष्ट: वेविषति / वेवेक्षि वेवेष्ठि: वेविष्ठ। वेवेष्मि वेविष्व: वेवेष्मिः / वेविष्यात् वेविष्यातां वेविष्युः / वेवेष्टु वेविष्टात् वेविष्टां वेविषतु / धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु इति तृतीयः / ऋवर्णटवर्गरषा मूर्धन्या इति न्यायात् षकारस्य डकारः / वेविड्डि वेविष्टात् वेविष्टं वेविष्ट / वेविषाणि वेविषाव वेविषाम। अवेवेट अवेविष्टां अवेविषुः। अवेवे: अवेविष्टं अवेविष्ट / अवेविषं अवेविष्व अवेविष्म / भावकर्मणो:-निज्यते / विज्यते / विष्यते / इति जुहोत्यादिः। अथ दिवादिगणः दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु / दिवादेर्यन् // 182 // दिवादेर्गणाद्विकरणसंज्ञको यन् भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे / नामिनोर्वोरकुर्छरोर्व्यञ्जने // 183 // अकुर्छरोर्वोरुपधाभूतस्य नामिनो दीघों भवति व्यञ्जने परे / दीव्यति दीव्यत: दीव्यन्ति / दीव्येत् दीव्येतां दीव्येयुः / दीव्यतु दीव्यतात् दीव्यतां दीव्यन्तु / अदीव्यत् अदीव्यतां अदीव्यन् / षूङ् प्राणिप्रसवे / स्वरादि गुणी सार्वधातुक के आने पर अभ्यस्त और उपधा के नामि को गुण नहीं होता है // 181 // नेनिजानि / अनेनेक् / “व्यंजनादिस्यो:” से दि सि का लोप हो गया है। विज् धातु से—वेवेक्ति वेविक्तः / वेविज्यात् / वेवेक्तु / वेविग्धि / विष्—वेवेष्टि / वेविष् से ‘षढोक: सूत्र से' ष को क् होकर आगे सकार को षकार होकर वेवेक्षि। . वेविष् + हि 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' सूत्र 120 से तृतीय अक्षर होता था तब “ऋवर्ण टवर्ग रषा मूर्धन्या:" इस न्याय से षकार को 'उ' पुन: तवर्गस्य षट्वर्गादृवर्ग:' से धि को ढि होकर 'वेविड्डि' अवेवेट् / भावकर्म में—निज्यते / विज्यते / विष्यते।। इस प्रकार से जुहोत्यादि गण समाप्त हो गया। अथ दिवादिगण दिवु धातु क्रीड़ा, जीतने की इच्छा, व्यवहार, कांति इच्छा, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कांति और गति अर्थ में है। दिव् ति है। दिवादि से ‘यन्' विकरण होता है // 182 // कर्ता में सार्वधातुक से परे दिवादिगण से विकरण संज्ञक ‘यन्' होता है। व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर कुर् छुर् को छोड़कर व की उपधाभूत नामिको दीर्घ हो जाता है // 183 // दीव्यति दीव्यत: दीव्यंति / दीव्येत् / दीव्यतु / अदीव्यत् / षूङ् धातु प्राणी को जन्म देने अर्थ में