________________ तिङन्तः 259 व्यञ्जनान्तानामनिटां धातूनां वृद्धिर्भवति परस्मैपदे सिचि परे / तुद व्यथने / अतौत्सीत् अतौत्तां अतौत्सुः / अतुत्त अतुत्सातां अतुत्सत / मृङ् प्राणत्यागे। ऋतोऽवृत्रः // 282 / / वृबृज्वर्जितादेकस्वरादृतः परमसार्वधातुकमनिड् भवति / ऋदन्तानां च // 283 // ऋदन्तानां च गुणो न भवति अनिटि सिजाशिषोश्चात्मनेपदे परे / अमृत अमृषातां अमृषतां अमुचत् अमुचतां अमुचन् / सिजाशिषोश्चात्मने // 284 // नामिन उपधाया: सिच्यानात्मनेपदे परे आशिषि चानिटि गुणो न भवति कर्तरि विहितायामद्यतन्यां परस्मैपदे / अमुक्त अमुक्षातां अमुक्षत। . स्पृशमशकृशतृपिदृपिसृपिभ्यो वा // 285 / / एभ्य: सिज्वा भवति अद्यतन्यां। स्पृशादीनां वा // 286 // स्पृशादीनां स्वरात्पर: अकारागमो भवति वा गुणवृद्धिस्थाने धुटि परे // स्पृश संस्पर्शने // अस्पाक्षीत् अस्प्राष्टां अस्पाक्षुः / अस्पार्षीत् अस्पार्टा अस्पाक्षुः / सण इति सण्। अस्पृक्षत् / मृश आमर्शने // अम्राक्षीत् अम्राष्टां अम्राक्षुः। अमाक्षीत् अमाष्टौँ अमाद्दुः / अमृक्षत् / कृश विलेखने। तुद्-व्यथित होना। अतौत्सीत् अतौत्तां अतौत्सुः / आत्मनेपद में वृद्धि नहीं होने से सिच् का लोप होकर अतत्त, अतुत्सातां अतुत्सत / .. मृङ्-प्राण त्याग करना / वृङ् वृञ् को छोड़कर एक स्वर वाले ऋकारांत धातु अनिट् होते हैं // 282 // आत्मनेपद में अनिट् में सिच् आशिष के आने पर ऋकारांत को गुण नहीं होता है // 283 // ह्रस्वान्त से स को लोप होता है अमृत अमृषातां अमृषत / मुच्–अमुचत् / आत्मनेपद में सिच् और आशिष के आने पर अनिट् में नामि उपधा को गुण नहीं होता है // 284 // अमुक्त अमुक्षातां अमुक्षत। स्पृश्, मृश् कृश् तृप् दृप सप से परे अद्यतनी में सिच् विकल्प से होता है // 285 // स्पृश आदि धातु को स्वर से परे गुण वृद्धि के स्थान में धुट के आने पर अकार का आगम विकल्प से होता है // 286 // स्पृशसंस्पर्श करना / गुण होने पर अकार का आगम होने से अस्पाक्षीत् अस्प्राष्टां अस्पाक्षुः / वृद्धि होकर अकार का आगम होने पर अस्पार्षीत् अस्पाष्टी अस्पाक्षुः / सण् प्रत्यय में-अस्पृक्षत् बना। . मृश्-छूना। अम्राक्षीत् / अमाीत्। अमृक्षत्। कृश–विलेखन अर्थ में हैं-अक्राक्षीत / अकार्षीत् अकृक्षत् / तृप–प्रीणन अर्थ में / अत्राप्सीत् / अतापर्सीत् 'पुषादित्वात्' अण् होने से 'अतृपत्' / दृप-हर्ष और मोहन अर्थ में / अद्राप्सीत् / अदासीत् / अदृपत् /