________________ 244 कातन्त्ररूपमाला ग्रहादीनामन्तस्थाया: परेण स्वरेण सह सम्प्रसारणं भवत्यगुणे परे / किं सम्प्रसारणं / सम्प्रसारणं खतोऽन्तस्था निमित्ताः // 215 // अन्तस्था निमित्ता इ उ ऋत: संप्रसारणसंज्ञा भवन्ति / गृह्णाति गृह्णीत: गृह्णन्ति / गृह्णीते गृह्णाते गृह्णते। ज्या वयोहानौ / जीनाति / भावकर्मणोश्च / जीयते / वेञ् तन्तुसन्ताने / वयति वयत: वयन्ति / वयते / ऊयते / व्यध् ताडने / विध्यति विध्यते / वश कान्तौ। छशोश्च // 216 // छशोश्च षो भवति धुट्यन्ते च / वष्टि उष्ट: उशन्ति / वक्षि उष्ठ: उष्ठ / वश्मि उश्व: उश्म: / उश्यते। व्यच व्याजीकरणे। विचति विचत: विचन्ति / विच्यते। प्रच्छ ज्ञीप्यासां / पृच्छति पृच्छत: पृच्छन्ति / पृच्छते / व्रश्चू छेदने / वृश्चति / वृश्चते। भ्रस्ज पाके। लुवर्णतवर्गलसा इति न्यायात् भृज्जति / भृज्जते / त्रिषु व्यञ्जनेषु संयुज्यमानेषु सजातीयानामेकव्यञ्जनलोप: / क्रीणीयात् / वृणीत / गृह्णीयात् गृह्णीत। क्रीणातु क्रीणीतात् क्रीणीताम् / क्रोणन्तु। क्रीणीहि क्रीणीतात् क्रीणीतं क्रीणीत / क्रीणानि क्रीणीव क्रीणीम। वृणीत / गृह्णातु गृह्णीतात् गृह्णीतां गृह्णन्तु। आन व्यञ्जनान्ताद्धौ // 217 // संप्रसारण किसे कहते हैं ? ____अन्तस्थ य व र को इ उ ऋ संप्रसारण संज्ञा होती है // 215 // . ग्रह को गृह हो गया गृह्णाति = गृह्णाति गृह्णीत: गृह्णन्ति / गृह्णीते गृह्णाते गृह्णते। ज्यावय की हानि अर्थ में है। ज्या में या कोई होकर 'जीनाति' बना। भाव-कर्म में—जीयते / वेञ् धातु बुनना। वयति / वयते / वे को आकारांत होकर वा को ऊ होकर 'ऊयते' / व्यध्–ताडित करना। य को इ होकर विध्यति / विध्यते / 'वयति' भ्वादिगण में बना है-एवं 'विध्यति' दिवादिगणं में बना है। वश धातु-कांति (चमकना)—यह धातु अदादि का है और विकरण का लोप हो जाता है। धुट के अन्त में आने पर छ् और श् को ए हो जाता है // 216 // वष् होकर 'तवर्गस्य पटवर्गाट्टवर्ग:' 118 सूत्र से टवर्ग होकर वष्टि बना / अगुणी में संप्रसारण होकर उष्टः उशन्ति / वक्षि “पढो क: से” ११९वें सूत्र से ष् को क् होकर पुन: सि को षि होकर वक्षि बना है। उष्ठ: उष्ठ / वश्मि उश्व: उश्म: / व और म अन्तस्थ, अनुनासिक होने से धुट नहीं है। व्यच्-कपट करना। य को इ होकर तुदादि गण में विचति विचत: विचन्ति बना। _ विच्यते / प्रच्छ धातु-प्रश्न करना। र को क्र होकर पृच्छति / पृच्छते / ब्रश्चू-छेदन करना / वृश्चति / वृश्चते। भ्रस्ज्-भूनना / “ल वर्ण त वर्ग ल और स ये दन्त्य कहलाते हैं।" 'तवर्गस्य चटवर्गयोमे चटवर्गौ' सूत्र से और दन्त्य होने के न्याय से सकार को त वर्ग मानकर आगे च वर्ग के योग में उसे च वर्ग कर देने से 'भृज्जति' बना। भृज्जते / भ्रस्ज् में र् को ऋ संप्रसारण हुआ है। तीन व्यञ्जनों के संयुक्त करने पर सजातीय में से एक व्यञ्जन का लोप हो जाता है। क्रीणीयात् / वृणीत / गृह्णीयात् / गृह्णीत / क्रीणातु / क्रीणीहि / वृणीत / गृह्णातु। व्यञ्जनांत धातु से क्यादि गण में 'हि' के आने पर विकरण संज्ञक 'आन' हो जाता है // 217 //