________________ तद्धितं 193 न य्वोः पदाद्योवृद्धिरागमः // 564 // इह प्रतिषेधो विधिश्च गम्यते। आदिशब्द: समीपवचन: / इश्च उश्च यू तयोवो: स्वराणामाद्यो: स्वरात्पूर्वयोरिकारोकारयोर्वृद्धिर्न भवति तयोरादौ वृद्धिरागमो भवति णकारानुबन्धे तद्धिते प्रत्यये परे / स्थानेन्तरतम इति न्यायाद् यकारस्य ऐकार: वकारस्य औकारः / व्याकरणं वेत्ति अधीते वा वैयाकरणः / द्वारे नियोगो यस्येति दौवारिकः / वोरिति किं ? महानसे नियोगोऽस्येति माहानसिकः / इत्यादि / सन्धिर्नाम समासच तद्धितश्चेति नामतः / चतुष्कमिति तत्प्रोक्तमित्येतच्छर्ववर्मणा // 1 // भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा। कृतायां रूपमालायां चतुष्कं पर्यपूर्यत // 2 // स्वर से पूर्व इकार उकार की वृद्धि नहीं होती है किंतु इन दोनों की आदि में वृद्धि का आगम होता है // 564 // यहाँ प्रतिषेध और विधि दोनों जानी जाती हैं। सूत्र में आदि शब्द समीपवाची हैं। 'य्वो:' की व्युत्पत्ति दिखाते हैं। इश्च उश्च—इ और उ की संधि करने में “इवर्णो यमसवणे इत्यादि" सूत्र से इ को य होकर उ मिलकर 'यु' बना उसका रूप चलाने से भानु शब्दवत् द्विवचन में 'यू' बना है इसी को षष्ठी का द्विवचन 'य्वो:' बन गया है। यदि 'ई' और 'उ' स्वरों की आदि में हैं ऐसे स्वर से पूर्व वाले इकार और उकार को वृद्धि नहीं होती है प्रत्युत णकारानुबंध तद्धित प्रत्यय के आने पर वृद्धि इन दोनों की आदि में वृद्धि का आगम हो जाता है। 'स्थानेऽन्तरतम:' इस न्याय से यकार को 'ऐकार' एवं वकार को 'औकार' हो जाता है। जैसे-व्याकरणं वेत्ति अधीते वा–व्याकरण को जानता है अथवा पढ़ता है। इसमें अण् प्रत्यय होकर व्याकरण के यकार के पूर्व 'ऐकार' का आगम होकर हलंत व् में मिलने से 'वैयाकरण:' बना। द्वारे नियोगो अस्य-द्वार पर रहने का है नियोग जिसका इस अर्थ में इकण् प्रत्यय होकर द्वार में वकार के पूर्व औ' का आगम होकर दकार में मिलने से दौवार + इकण रहा 'इवर्णावर्णयोलोप:' इत्यादि से रकार के अकार का लोप लोकर लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति 'दौवारिक:' बन गया। सूत्र में 'य्वोः' शब्द क्यों दिया ? महान से नियोगो अस्य रसोईघर में नियोग है इसका इस अर्थ में इकण् प्रत्यय से वृद्धि होकर 'माहानसिक:' बना है। किंतु पूर्व में इकार उकार न होने से वृद्धि का आगम नहीं हुआ है। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि आगम शत्रु के समान किसी के स्थान में न होकर मित्रवत् पृथक् ही होता है। इत्यादि। श्लोकार्थ-संधि, नाम, समास और तद्धित इस प्रकार से इन चार नामों को 'चतुष्क' कहते हैं। ऐसे इस चतुष्क को श्री शर्ववर्म आचार्य ने कहा है। अर्थात् इसमें संधि प्रकरण, लिंग प्रकरण, समास प्रकरण और तद्धित प्रकरण है अत: इस पूर्वार्ध को 'चतुष्क' कहते हैं इसमें इन चार प्रकरणों को श्री शर्ववर्म आचार्य ने पूर्ण किया है // 1 // ___ वादी रूपी पर्वत को चूर्ण करने में वज्र के सदृश श्री भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने 'रूपमाला' नाम * की प्रक्रिया में इस चतुष्क प्रकरण को पूर्ण किया है // 2 //