________________ तद्धितं 175 मृगस्य इदं मांसं मागं / सौकरं / कौमारं / पुत्रस्येदं पौत्रं / दैवं / पौरुषं / यून इदं यौवनं / एवमादिर्यस्येति गणो गृह्यते / चक्षुषा गृह्यते चाक्षुषं रूपं / एवं श्रावणः शब्दः / रासनो रस: / स्पार्शन: स्पर्श: / दृषदि पिष्टा दार्षदा: सक्तव: / उलूखलेन क्षुण्णा औलूखलास्तण्डुला: / अश्वैरुह्यते रथ: आश्वो रथ: / चतुर्भिरुह्यते चातुरं शकटं। चतुर्दश्यां दृष्टश्चातुर्दशो राक्षस: / त्रिविद्य एव त्रैविद्यः। पटोर्भाव: पाटवं। लाघवं / कौशलमित्यादि। तेन दीव्यति संसृष्टं तरतीकण चरत्यपि। पण्याच्छिल्पान्नियोगाच्च क्रीतादेरायुधादपि / / 2 / / तेन दीव्यति तेन संसृष्टं तेन तरति तेन चरतीत्यर्थे पण्यात् शिल्पात् नियोगाच्च क्रीतादेरायुधाद्अपीतीकण् प्रत्ययो भवति / तेन दीव्यतीत्यत्र इकण् / अक्षैर्दीव्यति आक्षिकः / एवं गिरिणा दीव्यति गैरिकः / दाण्डिकः / तेन संसृष्टमित्यादि / दना संसृष्टं दाधिकमौदनं / एवं क्षैरिकः / ताक्रिकः / घार्तिकः / शार्गवैरिकः / सार्पिषिक: / लावणिकः / मारिचिकः / तेन तरतीत्यत्रापि। उड़पेन तरतीति औडुपिकः। एवं वाहित्रिक: / द्रोण्या तरतीति द्रौणिकः। गौपुच्छिकः। नावा तरतीति नाविकः / 'चित्रयाचन्द्रयुक्तया युक्त: काल:' ऐसा विग्रह है। चित्रा+टा 'नक्षत्रयोगा' अण् पूर्व को वृद्धि आकार का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'चैत्र:' बना। ऐसे ही विशाखया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: वैसाखः / ज्येष्ठया चन्द्रयुक्तया युक्तः / काल: ज्येष्ठः / आषाढया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: आषाढः / श्रवणेन चन्द्रयुक्तेन युक्त: काल:, 'श्रावणः' / भाद्रपदया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: भाद्रपदः / अश्वयुजा चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः, आश्वयुज: / कार्तिकः, मार्गशिरः, माघ: फाल्गुन: इत्यादि इसी प्रकार से सर्वत्र समझ लेना। समूह अर्थ में अण्युवतीनां समूहो अण् प्रत्यय होकर युवति + आम विभक्ति का लोप, पूर्व स्वर को वृद्धि, इकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर नपुंसक लिंग में 'यौवतं' बना। एवं हंसानां समूह, हांस, ऋषीणां समूह: आर्ष, मृगानां समूह मार्ग / इत्यादि / वह इसके देवता है इस अर्थ में अण् / - जिनो देवता अस्य इति, जिन + सि विभक्ति का लोप होकर पूर्व स्वर को वृद्धि एवं अकार का लोप होकर लिंग विभक्ति आने से 'जैन:' बना। ऐसे ही शिवो देवता अस्य इति, शैव: आदि बन गये। ___तद् वेत्ति उसको जानता है इस अर्थ मे अण जिनं वेत्ति इति जिन + अम् विभक्ति का लोप, पूर्व स्वर को दीर्घ अकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'जैन:' बना। छन्दो वेत्ति अधीते वा-छन्द को जानता है या पढ़ता है इस अर्थ में 'छांदस:' बना, व्याकरणं वेत्ति अधीते वा वैयाकरण / यहाँ ५६४वें सूत्र से ऐ का आगम हुआ तस्येदं-उसका यह है इस अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। मृगस्य इद मार्ग, सूकरस्य इदं मांस सौकर / पुत्रस्य इदं पौत्र, देवस्य इदं दैवं, पुरुषस्येदं पौरुषं / यून: इदं यौवनं / आदि शब्द से अन्य और भी अर्थों में अण् प्रत्यय होता है जैसे चक्षुषा गृह्यते चक्षुष् + टा विभक्ति का लोप होकर वृद्धि होकर 'चाक्षुष' बना। ऐसे ही श्रवणाभ्या श्रूयते श्रावण: शब्द: रसनया गृह्यते रासन: स्पर्शेन गृह्यते स्पार्श: / दृषदि पिष्टा दार्षदा: / पत्थर पर पीसा गया सत्तू, मसाला आदि / उलूखलेन क्षुण्णा:-उलूखल से कूटा गया, 'ओलूखला:' तण्डुलाः / अश्वैः ऊह्यते रथ: आश्वः /