________________ 178 कातन्त्ररूपमाला तत्र जातस्तत आगतो वा // 499 / / इत्यादिषु च ईय: प्रत्ययो भवति / शालायां जात: शालीय: / शालाया आगत: शालीय: / यदुगवादिभ्यः // 500 // उवर्णान्ताद्गवादिभ्यश्च हितार्थे यद्भवति। कृकवाकुभ्यो हित: कृकवाकव्यः / वधूभ्यो हितो वधव्यः / गोभ्यो हितो गव्य: / पटुभ्यो हित: पटव्य: / हविभ्यो हिता हविष्यास्तण्डुला: / गवादय इति के। गो हविस् इष्टका बर्हिस् मेधा स्रज् स्रुच् इति / गवादिगण: / उपमाने वतिः / / 501 // उपमानेऽर्थे वतिः प्रत्ययो भवति / राजेव वर्तते राजवत् / ब्राह्मणस्येव वृत्तमस्येति ब्राह्मणवत् / मथुरायामिव पाटलिपुत्रे प्रासादा मथुरावत्। देवमिव त्वां पश्यामि देववत् / इत्यादि / सर्वत्र द्रव्यगुणक्रियाभि: साम्यमुपमानमस्तीति वत्प्रत्ययेन भवितव्यं / द्रव्ये / देवदत्त इव धनवान् देवदत्तवत् / एवं कुबेरवत् / बलिवत् / गुणे। यतिरिव गुणवान् यतिवत् / जलमिव शैत्यं जलवत् / अग्निरिव औष्ण्यमग्निवत् / श्रीखण्ड इव सुरभिः श्रीखण्डवत् / क्रियायां। ब्राह्मण इव वर्तते ब्राह्मणवत् / एवं पिशाचवत्। तत्वौ भावे॥५०२॥ वहाँ पैदा हुआ अथवा वहाँ से आया इत्यादि अर्थ में 'ईय' प्रत्यय होता है // 499 // शालायां जात: शाला+ङि, विभक्ति का लोप, अवर्ण का लोप, लिंग संज्ञा, पुन: विभक्ति आने से 'शालीय:' बना। शालाया आगतः, शाला+ ङस्, विभक्ति का लोप होकर, अवर्ण का लोप हुआ और लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'शालीय:' बना। उवर्णान्त और गवादि से हित अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होता है // 500 // कृकवाकुभ्यो हितः, कृकवाकु+भ्यस्, विभक्ति का लोप हुआ 'उवर्णस्त्वोत्वम्' इत्यादि से उकार को 'ओ' होकर अव् होकर, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'कृकवाकव्यः' बना / वधूभ्यो हित: = वधव्यः, गोभ्यो हित: = गव्य, पटुभ्यो हित: = पटव्य: / हवियॊ हित:, हविस् + भ्यस् विभक्ति का लोप स् को ष होकर बहुवचन में 'हविष्याः' बना इसका अर्थ है हवन करने योग्य तंदुल / गवादि से क्या-क्या लेना ? गो, हविस्, अष्टका, बर्हिस् मेधा, स्रज् और उच् शब्द गवादि गण में लिये जाते हैं। उपमान अर्थ में 'वति' प्रत्यय होता है // 501 // राजा इव वर्तते, राजन् + सि विभक्ति का लोप होकर 'लिंगांतनकारस्य' से नकार का लोप हो गया पुन: 'राजवत्' बना / ब्राह्मणस्येव वृत्तमस्य-ब्राह्मण के समान है चारित्र इसका= 'ब्राह्मणवत्' बना। मथुरा में पाटलिपुत्र के समान भवन हैं अत: 'मथुरावत्' बना / देवमिव त्वां पश्यामि 'देववत्' इत्यादि / सभी जगह द्रव्य, गुण और क्रियाओं से समान उपमा रहती है जिसकी, उसमें 'वत्' प्रत्यय होना चाहिये। द्रव्य में देवदत्त इव धनवान् = देवदत्तवत् / ऐसे ही कुबेरवत्, बलिवत् बना / गुण अर्थ में यतिरिव गुणवान् = यतिवत्, जलमिव शैत्यं = जलवत्, अग्निवत् श्री खण्ड इव सुरभि:श्रीखण्डवत् / क्रिया अर्थ में ब्राह्मण इव वर्तते = ब्राह्मणवत्। पिशाच इव वर्तते = पिशाचवत्।। भाव अर्थ में 'त' और 'त्व' प्रत्यय होते हैं // 502 //