________________ समास: 155 विभक्तिलोपः। अत्र नीलं किमित्यपेक्षते ? उत्पलमपेक्षते। उत्पलं किमित्यपेक्षते ? नीलमपेक्षते। नीलोत्पलं / एवं वीरश्चासौ पुरुषश्च वीरपुरुषः / शुक्लश्चासौ पटश्च शुक्लपटः। शोभना चासौ भार्या च शोभनभार्या / दीर्घा चासौ माला च दीर्घमाला। कर्मधारयसंज्ञे तु पुंवद्भावो विधीयते // 432 // इति ह्रस्वः / इत्यादि। संख्यापूर्वो द्विगुरिति श्रेयः / / 433 / / . स एव कर्मधारय: संख्यापूर्वश्चेत् द्विगुरिति ज्ञेयः / स च त्रिविध:-उत्तरपदतद्धितार्थसमाहारभेदात् / पञ्चसु कपालेषु संस्कृत ओदन: पञ्चकपाल ओदन: / दशसु गृहेषु प्रविष्टः दशगृहप्रविष्टः / अष्टसु कपालेषु संस्कृत: पुरोडाशः। . अष्टनः कपालेषु हविषि // 434 // का अभाव हो गया अत: 'नीलं उत्पलं' रहे ४२१वें सूत्र से विभक्तियों का लोप होकर 'नील उत्पल' रहे / यहाँ नील किसकी अपेक्षा करता है ? उत्पल की अपेक्षा करता है / उत्पल किसकी अपेक्षा करता है ? नील की अपेक्षा करता है। अत: नीलोत्पल में लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर नपुंसकलिंग में 'नीलोत्पलं' बना। ऐसे ही 'रक्तोत्पलं' बना। इसी प्रकार से पुल्लिंग में वीरश्चासौ पुरुषश्च विग्रह है। चकार और असौ का अप्रयोग होकर विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर पुन: सि विभक्ति आकर 'वीरपुरुषः' बना। वैसे ही शुक्लश्चासौ पटश्च-शुक्लपटः / स्त्रीलिंग में-शोभना चासौ भार्या च विग्रह है। पूर्वोक्त नियम से 'शोभनाभार्या' बनकर कर्मधारय समास में पुंवद्भाव हो जाता है // 432 // इस सूत्र से ह्रस्व होकर 'शोभनभार्या' बना। . वैसे दीर्घा चासौ माला च–दीर्घमाला बना। इत्यादि। ___अब द्विगु समास का वर्णन करते हैं। संख्यापूर्वक द्विगु समास होता है // 433 // वही कर्मधारय समास यदि संख्या पूर्व में रखकर होता है तब 'द्विगु' कहलाता है। उस द्विगु समास के तीन भेद हैं। उत्तरपद द्विगु, तद्धितार्थ द्विगु और समाहार द्विगु। उत्तरपद द्विगु का उदाहरण-दशसु गृहेषु प्रविष्टः ऐसा विग्रह हुआ। दशन् + सु, गृह + सु, प्रविष्ट + सि “तत्स्था लोप्या विभक्तयः” सूत्र से विभक्ति का लोप होकर, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर दशन् के नकार का लोप होकर 'दशगृहप्रविष्टः' बन गया। पञ्चन् + सुप, कपाल+ सु विभक्तियों का लोप होकर नकार का लोप हुआ पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर “पञ्चकपाल:” ओदन: / यहाँ संस्कृत शब्द अप्रयोगी है। अष्टसु कपालेषु संस्कृत: पुरोडाशः। अष्टन् + सु, कपाल+ सु विभक्तियों का लोप होकर कपाल से परे / हवन की सामग्री के वाच्य अर्थ में अष्टन् को आकारान्त हो जाता है // 434 //