________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः अस्त्रियां टा ना॥१६७॥ अग्निसंज्ञकात्परस्य टा ना भवत्यस्त्रियाम् / मुनिना। मुनिभ्यां / मुनिभिः / ङयि / डे॥१६८॥ अग्निसंज्ञकस्य इ: एद्भवति उ: ओद्भवति ङयि परे / मुनये / मुनिभ्यां / मुनिभ्यः / ङसिङसोरलोपश्च // 169 // अग्निसंज्ञकस्य इ: एद्भवति उ: ओद्भवति ङसिङसो: परत: तयोरकारश्च लोप्यो भवति / मुनेः / मुनिभ्याम् / मुनिभ्य: / मुनेः / मुन्योः / आमि नुरागमः / . दीर्घमामि सनौ // 170 // नाम्यन्तं लिङ्गं दीर्घमापद्यते सनावामि परे / मुनीनाम् / . डिरौ सपूर्वः // 171 // अग्निसंज्ञकात्परो ङि: पूर्वस्वरेण सह और्भवति / मुनौ / मुन्योः / मुनिषु / एवमग्नि गिरि रवि ऋषि यति कवि विधि राशि शीतरश्मि शालि दानवारि दैत्यारि सौरि सूरि विघ्नारि हेमाद्रि अद्रि हरि सारि वह्नि शकुनि पाकशासनि धमयोनि पद्मयोनि अपांपति अतिथि ग्रन्थि पदाति मैत्रि बलि ध्वनि पाणि कपि अलि मणि जलधि अब्धि पयोधि निधि उपाधि नीरधि व्याधि शेवध्यादयः // द्विशब्दस्य तु भेदः / तस्य द्वयर्थवाचित्वात् द्विवचनमेव भवति / द्वि औ अति स्थिते। अग्नि संज्ञक से परे स्त्रीलिंग के सिवाय बाकी में टा विभक्ति को 'ना' आदेश हो जाता है // 167 // तो मुनिना बना। मुनि + भ्याम् = मुनिभ्याम् / मुनि + भिस् = मुनिभिः। मुनि + डे अग्नि संज्ञक से परे विभक्ति के आने पर इ को ए और उ को ओ हो जाता है // 168 // मुन् ए+ए 'ए अय्' सूत्र से संधि होकर मुनय् + ए = मुनये बना।। ___मुनि+ ङसि, मुनि + ङस् ङसि ङस् विभक्ति के आने पर अग्नि संज्ञक इ को ए और उ को ओ हो जाता है और ङसि ङस् के अकार का लोप हो जाता है // 169 // ___तब मुने + स् / स् को विसर्ग होकर मुने: बन गया। मुनि + ओस् ‘इवणों यम् सवर्णे' इस-४४वें सूत्र से संधि होकर मुन्योस्, स् का विसर्ग होकर मुन्यो: बना। _____ मुनि+आम् “आमि च नुः” सूत्र से नु का आगम होकर मुनि+नाम् बना पुनः स् न् सहित आम् विभक्ति के आने पर नाम्यंत लिंग दीर्घ हो जाता है // 170 // तो मुनीनाम् बना। अग्नि संज्ञक से परे ‘ङि' विभक्ति पूर्व स्वर के साथ ही 'औ' हो जाती है // 171 // मुन् इ+ङि मुन् औ= मुनौ बन गया। पुन: मुन्यो: और नामिकरपर: इत्यादि सूत्र से नामि से परे स् को 'ए' करके मुनिषु बन गया।