________________ 48 कातन्त्ररूपमाला घुटि त्वैः॥१८०॥ सख्युरन्त: ऐर्भवति असंबुद्धौ घुटि परे / सखायौ / सखायः / संबुद्धौ मुनिशब्दवत् / हे सखे। हे सखायौ / हे सखायः / सखायम् // सखायौ / शसि मुनिशब्दवत् / सखीन् / टादौ। . न सखिष्टादावग्निः // 181 // सखिशब्दष्टादौ स्वरे परे नाग्निर्भवति / सख्या। सखिभ्याम् / सखिभिः / सख्ये। सखिभ्याम्। सखिभ्यः॥ ङसिङसोरुमः // 182 // सखिपतिभ्यां परयोर्डसिडसोरकार: उमापद्यते। सख्युः। सखिभ्याम्। सखिभ्यः। सख्युः। / सख्योः / सखीनाम् // सखिपत्योर्डिः॥१८३॥ सखिपतिभ्यां परो डिरेव और्भवति / पुनर्डिग्रहणं किमर्थं / सपूर्वस्वरनिवृत्त्यर्थं / / सख्यौ / सख्योः। . सखिषु / एवं सुसखि अतिसखि असखि प्रभृतयः / पतिशब्दस्य तु भेदः / पति: / पती। पतयः / हे पते / हे पती। हे पतय: / पतिम् / पती / पतीन् / टादौ / घुट विभक्ति के आने पर सखि शब्द के इ को 'ऐ' हो जाता है // 180 // सखि के अंत इ को ऐ हो जाता है असंबुद्धि स्वर वाली घुट विभक्ति के आने पर / तब सखै+औ 'ऐ आय्' से संधि होकर सखायौ, सखाय: बना। संबोधन में मुनि शब्द के समान इ को ए होकर हे सखे बना। सखि+ शस् मुनिवत् अ को पूर्व स्वर और स् को न होकर / संधि होकर सखीन् बन गया। सखि+टा टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर सखि शब्द को अग्नि संज्ञा नहीं होती है // 181 // तब “इवर्णो यम सवर्णे” इत्यादि सूत्र से संधि होकर 'सख्या' बना। सखि + उ = सख्ये बना। सखि+ ङसि सखि+ ङस् सखि और पति से परे ङसि और ङस् के अकार को उकार हो जाता है // 182 // तब सखि + उस् संधि होकर सख्युः बना। सखि+ङि। सखि और पति से परे ङि को 'औ' हो जाता है // 183 // सूत्र में पुन: ङि शब्द क्यों ग्रहण किया ? सूत्र में पूर्व स्वर सहित ङि को औ होता था। यहाँ मात्र ङि को ही औ होता है इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही यहाँ पुन: 'ङि' शब्द को ग्रहण किया है। सखि+ औ=सख्यौ बना। सखा सखायौ सखायः / सख्ये सखिभ्याम् सखिभ्यः हे सखे ! हे सखायौ ! हे सखायः ! सख्युः सखिभ्याम् सखिभ्यः सखायम् सखायौ सखीन् सख्युः सख्योः सखीनाम् सख्या सखिभ्याम् सखिभिः / सख्यौ सखिषु पति शब्द में टा आदि विभक्ति के आने पर कुछ भेद है। पति+टा सख्योः