________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः 109 अघटस्वरादौ सेटकस्यापि वन्सेर्वशब्दस्योत्वम्॥३१९ / / सेट्कस्यापि 'वन्सेर्वशब्दस्योत्वं भवति अघुट्स्वरादौ / विदुषः / विदुषा। विरामव्यञ्जनादिष्वनडुन्नहिवन्सीनां च // 320 // विरामे व्यञ्जनादौ च अनड्वन्नहिवन्सीनामन्तस्य दो भवति। विद्वद्भ्यां / विद्वद्भिः / इत्यादि / पेचिवान् / पेचिवांसौ। पेचिवांसः। पेचिवांसं। पेचिवांसौ। निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः / इतीडभावः / अघुट्स्वरादौ सेटकस्येति उत्वम् / पेषुषः। पेचुषा। पेचिवद्भ्यां / पेचिवद्भिः / पेचुषे / पेचिवद्भ्यां / पेचिवद्भ्यः / एवं तेनिवन्स् प्रभृतयः / इत्यादि / उखाश्रस् शब्दस्य तु भेदः / सौ श्रसिध्वसोश्च // 321 // विद्वन्स् + शस्, अब अघुट विभक्ति के आने पर अघुट् स्वर वाली विभक्ति के आने पर इट् सहित एवं इट् रहित दोनों प्रकार के शब्दों में भी 'वन्स्' के 'व' को 'उ' हो जाता है // 319 // . विदुन्स् + अस् “व्यञ्जने चैषा नि:” इस १८८वें सूत्र से नकार का लोप होकर एवं 'नामि' से परे स् को ष् होकर 'विदुषः' बना। अब व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर-विद्वन्स् + भ्याम् / विराम एवं व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर अनड्वाह् और वन्स् शब्द के अन्त को 'दकार' हो जाता है // 320 // अत: 'व्यंजने चेषां नि:' से नकार का लोप होकर 'विद्वदभ्याम्' बना विद्वान् विद्वांसौ विद्वांसः / विदुषे विद्वद्भ्याम् विद्वद्भ्यः .. हे विद्वन ! हे विद्वांसौ ! हे विद्वांसः ! | विदुषः हे विद्वासा ! हविद्वास विद्वद्भ्याम् विद्वद्भ्यः विद्वांसम् विद्वांसौ विदुषः विदुषः विदुषोः विदुषाम् विदुषा, विद्वद्भ्याम् विद्वद्भिः विदुषि विदुषोः विद्वत्सु पेचिवन्स् + सि= पेचिवान्, बना घुट् विभक्ति तक विद्वान् के समान रूप बनेंगे। आगे अघुट * 'स्वर वाली विभक्ति के आने पर कुछ अंतर है। यथा-पेचिवन्स् + शस् "निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है" इस नीति के अनुसार पेचिवन्स् शब्द के इट् का अभाव होकर एवं उपर्युक्त ३१९वें सूत्र से 'व' को 'उ' होकर. 'पेषुषः' बना। पेचिवान् पेचिवांसौ पेचिवांसः / पेचुषे / पेचिवद्भ्याम् पेचिवद्भ्यः हे पेचिवन् ! . हे पेचिवांसौ ! हे पेचिवांसः / / पेचिवद्भ्याम् पेचिवद्भ्यः पेचिवांसं पेचिवांसौ पेचुषः पेचुषः पेचुषोः पेचुषाम् पेचुषा पेचिवद्भ्याम् पेचिवद्भिः / पेचुषि पेचुषोः पेचिवत्सु तेनिवन्स् शब्द के रूप भी इसी प्रकार से चलते हैं। उखाश्रस् शब्द में कुछ भेद है। उखाश्रस्+सि विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर श्रस्, ध्वस् शब्द के अंत के सकार को दकार हो जाता है // 321 // 1. सेटकस्य इडागमेन सहितस्य // 2. वन्सीति विद्वन्नित्यादिस्थले रूपम् // 3. आगम उदनुबन्धः स्वरादन्त्यात्परः॥