________________ 54 कातन्त्ररूपमाला आ सौ सिलोपश्च // 194 // ऋदन्तस्य लिङ्गस्य आ भवति सौ परे सिलोपश्च / पिता। घुटि च // 195 // ऋदन्तस्य अर् भवति घुटि परे / पितरौ / पितरः / सम्बुद्धौ च / आ च न सम्बुद्धौ // 196 // ऋदन्तस्य आर् आ च न भवति सम्बुद्धौ परत: / अपि तु घुटि चेत्यति / हे पित: / हे पितरौ / हे पितरः / पितरम् / पितरौ। अग्निवच्छसि // 197 // __ ऋदन्तस्य अग्निवत्कार्यं भवति शसि परे। पितॄन् / पित्रा। पितृभ्याम्। पितृभिः। पित्रे / पितृभ्याम् / पितृभ्यः / ङसिङसोः। ऋदन्तात्सपूर्वः // 198 // इस प्रकार से ऊकारांत शब्द पूर्ण हुए। अब ऋकारांत शब्द चलेंगे। पितृ + सिसि के आने पर लिंगात ऋकार को 'आ' होकर 'सि' का लोप हो जाता हैं // 194 / / . अत: पिता बना। पितृ + औ घुट् स्वर के आने पर ऋकार को अर् हो जाता है // 195 // पित् अर् + औ=पितरौ, पितरः संबोधन में पितृ+सिसंबोधन में सि के आने पर ऋकार को आर् एवं आ नहीं होता है // 196 // अपि च 'घुटि च' इस १९५वें सूत्र से अर् हो जाता है तो पितर् + स् ए 'व्यंजनाच्च' सूत्र से व्यंजन से परे सि का लोप होकर "रेफसोर्विसर्जनीयः” से रकार को विसर्ग हो गया। तो हे पित: ! बना। द्विवचन, बहुवचन पूर्ववत् हैं। पितृ + शस् __शस् के आने पर ऋदंत को अग्निवत् कार्य हो जाता है // 197 // अर्थात् अग्नि संज्ञा होकर 'शसोऽकार: सश्चनोऽस्त्रियाम्' १६६वें सूत्र से अकार को पूर्व स्वर रूप एवं स् को न हो गया तो। पितृ + ऋन् संधि होकर पितॄन् बन गया। पितृ +टा 'रमृवर्ण:' ४६वें सूत्र से ऋ को र् होकर पित्रा बना। व्यंजन वाली विभक्ति में कुछ भी नहीं होगा तो पितृ + भ्याम् = पितृभ्याम् / पितृ + ङसि, पितृ + ङस् / ऋकार से परे ङसि ङस् को अकार पूर्व स्वर क्र के साथ 'उ' हो जाता है // 198 //