________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः ककारषकारयोयोंगे क्षो भवति सुवाक्षु / कवर्गप्रथमः शषसेषु द्वितीयो वा // 257 // कवर्गप्रथमस्य द्वितीयो भवति शषसेषु परतो वा / सुवाख्सु / प्रत्यञ्च्शब्दस्य तु भेदः / चवर्गदृगादीनां चेत्यत्र चवर्गग्रहणबलादञ्च युज् क्रुञ्चां प्रागेव गत्वं। मनोरनुस्वारो धुटि // 258 // अनन्त्ययोर्मकारनकारयोरनुस्वारो भवति धुटि परे। वर्गे वर्गान्तः / / 259 // अनुस्वारो वर्ग परे वर्गान्तो भवति।। . संयोगान्तस्य लोपः // 260 // पदस्य संयोगान्तस्य लोपो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च / प्रत्यङ् / प्रत्यञ्चौ। प्रत्यञ्चः / प्रत्यञ्चं / प्रत्यञ्चौ। . व्यञ्जनान्नोऽनुषङ्गः // 261 // सुवाचो सुवाचे इससे सुवाक्षु बना। श् ष् स् के आने पर क वर्ग का प्रथम अक्षर विकल्प से द्वितीय अक्षर हो जाता है // 257 // . अत: सुवाख्सु बन गया। सुवाक्, सुवाग् सुवाचौ सुवाचः सुवाचः सुवाग्भ्याम् सुवाग्भ्यः सुवाचम् सुवाचौ सुवाचः सुवाचः सुवाचोः सुवाचाम् सुवाचा सुवाग्भ्याम् सुवाग्भिः सुवाचि सुवाक्षु, सुवासु सुवाग्भ्याम् सुवाग्भ्यः प्रत्यञ्च शब्द में कुछ भेद हैं। - "चवर्गदृगादीनां च' इस सूत्र से च को ग हो गया तब प्रत्यन् ग् + सि 'व्यञ्जनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप हो गया। यहाँ च के निमित्त से न् को ब् हुआ था अत: च् को ग् करने पर ञ् मूल न् के रूप में आ गया। . धुट के आने पर अंत में न हो ऐसे मकार और नकार अनुस्वार हो जाता है // 258 // आगे वर्ग के आने पर अनुस्वार उसी वर्ग का अंतिम अक्षर हो जाता है // 259 // अत: प्रत्यङ्ग रहा। विराम और व्यंजनादि विभक्ति के आने पर अन्त के संयोगी अक्षर का लोप हो जाता है // 260 // अत: प्रत्यङ बना। प्रत्यञ्च+औ=प्रत्यञ्चौ आदि। प्रत्यञ्च् + शस् धातु और लिंग के अंतिम व्यंजन से पूर्व में जो नकार है वह 'अनुषंग' संज्ञक हो ' जाता है // 261 //