Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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अभी वसन्त का समय है - प्रकृति अपना दिव्य और स्वर्गिक शृंगार कर रही है, इधर प्राची में अरुणोदय हो रहा है । चाहते हैं कि हम आगे ही आगे बढ़ते रहें, गतिमय रहें, अभय । अन्तरतम में परम ज्योति की आशा फैले । गुरुदेव ने भी कहा है 'मेरे अन्तर भया प्रकाश । - इस सबके परिप्रेक्ष्य में सोचता हूँ क्या हम उस गति की, उस प्रकाश की, धारणा ध्यान की, यम-नियम की, सामायिक स्वाध्याय की अल्प मनस्विता प्राप्त कर पाए ? उसकी कुछ भी उपलब्धि हुई ? प्रश्न मेरा है, उत्तर प्रापका ! क्या देवलोक से प्राचार्य श्री हमें देखकर कहीं विस्मित तो नहीं हो रहे हैं, कहीं उपहास तो नहीं कर रहे हैं कि हमारी कथनी और करनी में, प्रचार और विचार में, अधिकार - कर्तव्य में, साधन - साध्य में कैसी विसंगति-विषमता व्याप्त हो गयी ? क्यों, कैसे और कहाँ ? आचार्य श्री के महाप्रयाण के पुण्य दिवस पर आज मन इन विकल्पों से न जाने क्यों भयाकुल हो रहा है ? बाहर और भीतर के इस अलंघ्य अन्तराल को कौन मिटा सकेगा ?
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व्यक्तित्व और कृतित्व
अपने में सब कुछ भर कैसे, व्यक्ति विकास करेगा, यह एकान्त स्वार्थ भीषरण है, सबका नाश करेगा ।
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क्षमा करें ! आपने लिखा था प्राचार्य श्री पर कुछ लिखने को, पर यह भी तो 'भक्ति युक्त प्राचार्य गुरु श्री हस्ती का धरूं हृदय में ध्यान' से ही तो लिख रहा हूँ। मैंने उनके 'ध्यान' को देखा है-उस अगाध अंतर्धाररणा को योग की चिदाकाश धारणा को, अन्तर्मोन को, जिसमें ग्रात्म साक्षात्कार स्पष्ट होता है । यही तो योग निद्रा है - जिसमें प्रान्तरिक व्यक्तित्व अध्यात्म की चरम सीमा पर श्रात्मबोध करता है । योग निद्रा में ही तो शारीरिक केन्द्रों की स्थिति अन्तर्मुखी हो जाती है। यही तो व्यक्तित्व की गहराई में होने वाला नाद - योग है । मैंने प्राचार्य श्री में इसी नादानुसंधान को उनके अन्तिम समय में और जीवन में देखा है । विलियम जेम्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'धार्मिक अनुभवों के विविध आयाम' में लिखा है "आध्यात्मिक तेजस्विता में उल्लास व आनन्द की बाढ़ आ जाती है । लगता है यह विश्व जड़ पदार्थ नहीं है, बल्कि हर चीज में एक जीवन्त सत्ता है । इस विश्व - व्यवस्था में हर वस्तु एक-दूसरे के हितार्थ कार्य करती है । सम्पूर्ण विश्व का मूल सिद्धान्त प्रेम तथा परोपकार पर, करुणा और दया पर प्रधृत है । यह आध्यात्मिक प्रगति और अनुभव भाषा के परे हैं। लगता है कि मनुष्य समग्र सृष्टि का एक आवश्यक, आत्मीय और महत्त्वपूर्ण अंग है - प्रविभाज्य ।" कई बार मैंने आचार्य श्री के ध्यान में, मौन में, योग-साधना में यही देखा है और उसे समझने की चेष्टा की है, पर कहाँ " अन्तवन्त हम हन्त कहाँ से वह अनन्तता लावें ।"
- जयशंकर प्रसाद
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