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[ १२ ] जो क्रियावान् है, वही विद्वान् है
यह धर्म सभा है। इस सभा में दिये गये प्रवचन जहाँ व्यक्ति कों आध्यात्मिक उन्नति में आगे बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं, वहाँ उनमें समाज लौकिक उन्नति में नीति न्याय पूर्वक आगे बढ़े, इसका भी विवेचन होता है। गृहस्थ का सम्बन्ध धर्म से भी है, अर्थ से भी है और समाज से भी । इन सबसे सम्बन्ध होते हुए भी सद्गृहस्थ अर्थ को प्रधानता नहीं देता । वह समाज को उन्नति की ओर बढ़ाने का लक्ष्य रखता है और उसकी दृष्टि धर्म केन्द्रित रहती है ।
___ यहाँ इस धर्म सभा में जो भाई-बहिन उपस्थित हैं, मैं समझता हूँ वे सद्गृहस्थ की श्रेणी में आते हैं और धर्म के प्रति उनकी रुचि है। श्रावक के लिए शास्त्रों में कई विशेषणों का प्रयोग हुआ है। उनमें एक विशेषण 'धम्मिया' भी है। यों तो साधु और श्रावक दोनों का लक्ष्य एक अर्थात् वीतराग दशा प्राप्त करना है । इस दृष्टि से साधु और श्रावक के जानने और मानने में कोई अन्तर नहीं है । अन्तर है केवल चलने में, आचरण में । साधु पूर्ण त्यागी होता है और श्रावक अंशतः त्यागी। श्रावक को अपने गृहस्थ जीवन का दायित्व निभाना पड़ता है । सामान्य गृहस्थ की दृष्टि अर्थ प्रधान होती है पर जिसकी दृष्टि सम्यक अर्थात् धर्म प्रधान बन जाती है, वह श्रावक धर्म निभाने का अधिकारी बन जाता है । गृहस्थ जीवन में रहते हुए धर्म का आचरण करना साधारण बात नहीं है, काजल की कोठरी में चलने के समान है। उसमें चलते हुए हिंसा, झठ, चोरी आदि से बचने और किसी प्रकार का कोई काला धब्बा न लगे, इसमें बड़ी कुशलता और सावधानी की आवश्यकता है। यह कुशलता ज्ञान और आचरण से आती है।
श्रावक वह होता है, जो धर्मशास्त्र के वचनों को श्रद्धापूर्वक सुनकर विवेकपूर्वक उन पर आचरण करता है। मनुष्य परिवार और समाज में रहता है । उसके समक्ष कई समस्याएँ आती हैं। जो त्यागी होता है, वह उनके प्रति निर्लेप भाव रखने से उनमें उलझता नहीं। पर जो रागी होता है, यदि उसमें ज्ञान और विवेक नहीं है, तो वह उनमें उलझता चलता है । जिसने श्रावक धर्म के रास्ते पर चलना प्रारम्भ कर दिया है, वह आसानी से समस्याओं का समाधान पा लेता है।
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