Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
साधना का स्वरूप और प्राचार्य श्री की साधना
। श्री कन्हैयालाल लोढ़ा
साधना का स्वरूप व प्रकार :
खाना, पीना, देखना, सुनना, विलास करना आदि द्वारा क्षणिक सुखों का भोग तथा कामना अपूर्तिजन्य दुःख का वेदन तो मनुष्येतर प्राणी भी करते हैं । मनुष्य की विशेषता यही है कि वह दुःख रहित अक्षय-अखंड-अनंत सुख का भी भोग कर सकता है। जो मनुष्य ऐसे सुख के लिए प्रयत्नशील होता है, उसे ही साधक कहा जाता है । प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ऐसे ही एक उत्कृष्ट साधक थे। यह नियम है कि दुःख मिलता है-असंयम, कामना, ममता, अहंता, राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, विषय, कषाय आदि दोषों से और सुख मिलता हैक्षमा, मैत्री, निरभिमानता, विनम्रता आदि सद्गुणों से। अतः दुःख रहित सुख पाने का उपाय है दोषों की निवृत्ति एवं गुणों की अभिव्यक्ति । दोषों की निवृत्ति को निषेधात्मक साधना एवं गुणों की अभिव्यक्ति व क्रियान्विति को विधिआत्मक साधना कहा जाता है। साधना के ये दो ही प्रमुख अंग हैं-(१) निषेधात्मक साधना और (२) विधि-प्रात्मक साधना । निषेधात्मक साधना में जिन दोषों का त्याग किया जाता है उन दोषों के त्याग से उन दोषों से विपरीत गुणों की अभिव्यक्ति साधक के जीवन में सहज होती है, वही विधि-यात्मक साधना कही जाती है। जैसे वैर के त्याग से निर्वैरता की उपलब्धि निषेधात्मक साधना है और मित्रता की अभिव्यक्ति विधि-प्रात्मक साधना है। जैसा कि 'आवश्यक सूत्र' में कहा है-"मित्ति मे सव्व भूएसु, वैरं मझ न केणइ।" अर्थात् मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है, किसी भी प्राणी के प्रति वैरभाव नहीं है। यहाँ वैरत्याग व मैत्रीभाव दोनों कहा है। इसी प्रकार हिंसा के त्याग से हिंसारहित होना निषेधात्मक साधना है और दया, दान, करुणा, वात्सल्य आदि सद्गुणों की अभिव्यक्ति विधि-प्रात्मक साधना है । मान के त्याग से निरभिमानता की उपलब्धि निषेधात्मक साधना है और विनम्रता का व्यवहार विधि-प्रात्मक साधना है । लोभ के त्याग से निर्लोभता की उपलब्धि निषेधात्मक साधना है और उदारता की अभिव्यक्ति विधि-प्रात्मक साधना है इत्यादि ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org