Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
कर्म काट कर मुक्ति मिलावे, चेतन निज पद को तब पावे । मुक्ति के मारग चार, जान कर दिल में धारो || समभो ॥६॥
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सागर में जलधार समावे, त्यूं शिवपद में ज्योति मिलावे । होवे 'गज' उद्धार, अचल है निज अधिकारो || समझो ॥७॥
( ४ )
सब जग एक शिरोमणि तुम हो
[ तर्ज - बालो पांखा बाहिर आयो, माता बैन सुनावे यूं ]
सतगुरु ने यह बोध बताया, नहीं काया नहीं माया तुम हो । सोच समझ चहुँ ओर निहारो, कौन तुम्हारा अरु को तुम हो ॥१॥
हाथ पैर नहीं सिर भी न तुम हो, गर्दन, भुजा, उदर नहीं तुम हो । नेत्रादिक इन्द्रिय नहीं तुम हो, पर सबके संचालक तुम हो ||२||
अस्थि, मांस, मज्जा नहीं तुम हो, रक्त वीर्य भेजा नहीं तुम हो । श्वास न प्राण रूप भी तुम हो, सबमें जीवनदायक तुम हो ||३||
पृथ्वी, जल, अग्नि नहीं तुम हो, गगन, अनिल में भी नहीं तुम हो । मन, वाणी, बुद्धि नहीं तुम हो, पर सबके संयोजक तुम हो ||४||
मात, तात, भाई नहीं तुम हो, वृद्ध नारी नर भी नहीं तुम हो । सदा एक अरु पूर्ण निराले, पर्यायों के धारक तुम हो ||५||
जीव, ब्रह्म, आतम रु हंसा, 'चेतन' पुरुष रूह तुम ही हो । नाम रूपधारी नहीं तुम हो, नाम- वाच्य फिर भी तो तुम हो || ६ ||
कृष्ण, गौर वर्णा नहीं तुम हो, कर्कश, कोमल भाव न तुम हो । रूप, रंग धारक नहीं तुम हो, पर सब ही के ज्ञायक तुम हो ||७||
भूप, कुरूप, सुरूप न तुम हो, सन्त महन्त गणी नहीं तुम हो । 'गजमुनि' अपना रूप पिछानो, सब जग एक शिरोमणि तुम हो ||८||
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