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ममता घटने पर दान की प्रवृत्ति
स्व-पर के भेद का बोध हो जाने की स्थिति में ही अपने शरीर पर साधक की ममता कम होगी । शरीर एवं भोज्योपभोज्यादि पर ममता कम होने पर वह तप करने को उद्यत होगा । भौतिक सामग्री पर ममता घटेगी, तभी व्यक्ति के अन्तर्मन में दान देने की प्रवृत्ति बलवती होगी । ममता घटेगी, तभी सेवा की वृत्ति उत्पन्न होगी, क्योंकि ये सारी चीजें ममता से सम्बन्धित हैं । आलोचना का व्यक्ति के स्वयं के जीवन-निर्माण से सम्बन्ध है । आलोचना वस्तुतः व्यक्ति के स्वयं के जीवन निर्माण का प्रमुख साधन है, जबकि दान स्व और पर दोनों के जीवन निर्माण का साधन है । दान का सम्बन्ध दूसरे लोगों के साथ स्वधर्मी बन्धुत्रों के साथ प्राता है और इसमें स्व-कल्याण के साथ परकल्याण का दृष्टिकोण अधिक होता है । इसका मतलब यह नहीं है कि दान देते समय दानदाता द्वारा स्व-कल्याण को पूर्णतः ठुकरा दिया जाता है । क्योंकि परकल्याण के साथ स्व-कल्याण का अविनाभाव सम्बन्ध है । पर कल्याण की भावना जितनी उत्कृष्ट होगी, उतना ही अधिक स्व-कल्याण स्वतः ही हो जायगा । जो स्व-कल्याण से विपरीत होगा, वह कार्य व्यवहारिक एवं धार्मिक, किसी पक्ष में स्थान पाने लायक नहीं है ।
व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व
तो दान की यह विशेषता है कि वह स्व और पर दोनों का कल्याण करता है । दान देने की प्रवृत्ति तभी जागृत होगी, जब कि मानव के मन में अपने स्वत्व की, अपने अधिकार की वस्तु पर से ममता हटेगी । ममत्व हटने पर जब उसके अन्तर में सामने वाले के प्रति प्रमोद बढ़ेगा, प्रीति बढ़ेगी और उसे विश्वास होगा कि इस कार्य में मेरी सम्पदा का उपयोग करना लाभकारी है, कल्याणकारी है, तभी वह अपनी सम्पदा का दान करेगा ।
किसान अपने घर में संचित अच्छे बीज के दानों को खेत की मिट्टी में क्यों फेंक देता हैं ? इसीलिये कि उसे यह विश्वास है कि यह बढ़ने-बढ़ाने का रास्ता है । अपने कण को बढ़ाने का यही माध्यम है कि उसे खेत में डाले । जब तक बीज को खेत में नहीं डालेगा, तब तक वह बढ़ेगा नहीं । पेट में डाला हुआ कण तो खत्म हो जायगा, जठराग्नि से जल जायगा, किन्तु खेत में, भूमि में डाला हुआ बीज फलेगा, बढ़ेगा । ठीक यही स्थिति दान की भी हैं। थोड़ा सा अन्तर अवश्य हैं ।
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A को खेत में डालने की अवस्था में किसान की बीज पर से ममता छूटी नहीं है । बीज को खेत में फैंकने में अधिक लाभ मानता हैं, इसलिये फेंकता है । पर हमारे धर्म पक्ष में दान की इस तरह की स्थिति नहीं हैं । दान की प्रवृत्ति में जो अपने द्रव्य का दान करता है, वह केवल इस भावना से ही दान
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