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.• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
का, सोने का, हीरा-मोती जटित है क्या ? नहीं। जैन साधु अपने पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रख सकता, यहाँ तक कि चश्मे की डण्डी में किसी धातु की कील भी हो तो हमारे काम नहीं आयेगा । जब तक दूसरा नहीं मिले, तब तक भले ही रखें।
आपके सन्त इतने अपरिग्रही और आप धर्मस्थान में प्रावें तो सोचें कि बढ़िया सूट पहन कर चलें । बाई सोचती है कि सोने के गोखरू हाथों में पहन लें, सोने की लड़ गले में डाल लें, सोने की जंजीर कमर में बाँध लें, यहाँ तक कि माला के मनके भी लकड़ो चन्दन के क्यों हों, चांदी के दानों की माला बनवा लें।
___ इस प्रकार आप धर्मक्रिया में परिग्रह रूप धारण करेंगे, जरा-जरा सी लेने-देने की सामग्री में परिग्रह से मूल्यांकन होगा, तो चिन्ता पैदा होगी या नहीं? चोरी होगी तो आप कितनों को लपेटे में लेंगे? वेतन पर काम करने वाले कार्यकर्ता भी लपेटे में आयेंगे, कमेटी के व्यवस्थापक भी लपेटे में आयेंगे।
दूसरे लोग कहें न कहें लेकिन हम अपरिग्रही हैं, इसलिए कहता हूँ कि अपरिग्रह के स्थान पर तो ज्यादा से ज्यादा अपरिग्रह रखने की ही भावना आनी चाहिए। अपरिग्रह : मानव-जीवन का भूषण
परिग्रह की ममता कब कम होगी ? जबकि स्व का अध्ययन करोगे । अपने आप को समझ लोगे तो जान लोगे कि सोने से प्रादमी की कीमत नहीं है, सोने के आभूषणों से कीमत नहीं, लेकिन आत्मा की कीमत है सदाचार से, प्रामाणिकता से, सद्गुणों से । सत्य और क्रियावादी होना भूषण है । दान चाहे देने के लिए पास में कुछ भी नहीं हो, जो भी आवे उसका योग्यता के कारण सम्मान करना चाहिए । तिरस्कार करके नही निकालना, यह हाथ का भूषण है । गुणवान को नमस्कार करना यह सिर का भूषण है । परिग्रह को घटाकर सत्संग में जाना, कहीं किसी की सहायता के लिए जाना यह पैरों का भूषण है । सत्संग में ज्ञान की प्राप्ति होगी।
मनुष्य का शरीर यदि सोने से लदा हुआ है, लेकिन वह सद्गुणी नहीं है, तो निन्दनीय है।
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