Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 316
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.. • २६७ (१) अज्ञान (२) निद्रा (३) मिथ्यात्व (४) अविरति (५) राग (६) द्वष (७) हास्य (८) रति (8) अरति (१०) भय (११) शोक (१२) जुगुप्सा (१३) काम (१४) दानान्तराय (१५) लाभान्तराय (१६) भोगान्त राय (१७) उपभोगान्त राय और (१८) वीर्यान्तराय । कुछ आचार्य अठारह दोषों में 'कवलाहार' को एक मानकर केवली भगवान् के 'कवलाहार' नहीं मानते, पर आहार का सम्बन्ध शरीर से है, वह 'गमनागमन' और श्वास की तरह शरीर-धर्म होने से प्रात्म गुण का घातक नहीं बनता, अतः यहाँ उसका ग्रहण नहीं किया गया। इस प्रकार अठारह दोष-रहित, बारह गुण सहित, अरिहंत देव ही आराध्य हैं । देव त्यागी, विरागी एवं वीतराग हैं, अतः त्याग, विराग ओर वीतराग भाव की ओर बढ़ना एवं तदनुकूल करणी करना ही उनकी सच्ची भक्ति हो सकती है, जैसा कि सन्तों ने कहा है ध्यान धूपं मनः पुष्पं, पंचेन्द्रिय-हुताशनं । क्षमा जाप संतोष पूजा, पूजो देव निरंजनं ।। २. गुरु सेवा : ___ दूसरा कर्म गुरुसेवा है। “जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो" के अनुसार श्रावक, प्रारंभ-परिग्रह के त्यागी, सम्यकज्ञानी, मुनि एवं महासतियों को ही गुरु मानता है। सच्चे संत छोटी-बड़ी किसी प्रकार की हिंसा करते नहीं, करवाते नहीं, करने वाले को भला भी समझते नहीं। इस प्रकार वे झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के भी तीन करण, तीन योग से सर्वथा त्यागी होते हैं। श्रावक प्रतिदिन ऐसे गुरुजनों के दर्शन व वंदन कर उपदेश ग्रहण करते हैं और उनके संयम गुरण के रक्षण व पोषण हित वस्त्र, पात्र, आहार, औषध एवं शास्त्रादि दान से सेवा-भक्ति करते हैं । जैसा कि उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक ने कहा, "कप्पइ में समणे निग्गंथे फासुय-एसणिज्जेणं असण, पाण, खाइम, साइम, वत्थ, पडिग्गह, कंवल, पाय पुच्छणेणं, पीढ, फलग, सिज्जा, संथारएणं, प्रोसहभेसज्जेणं, पडिलाभेमाणस्स विहरिन्तए" अर्थात् मुझे श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और निर्दोष अशनादि चारों आहार, वस्त्र, पात्र, कंवल, पादपोंछन, पीठ, फलक, शैया, संस्तारक और औषध-भैषज से प्रतिलाभ देते हुए विचरण करना योग्य है । अन्य तीर्थ के देव या अन्य-तीर्थ-परिगृहीत चैत्य का वंदन-नमस्कार करना योग्य नहीं, वैसे ही उनके पहले बिना बतलाये उनसे पालाप-संलाप करना तथा उनको (गुरुगों को) अशनादि देना नहीं कल्पता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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