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ध्यान : स्वरूप-विश्लेषण
ध्यान की आवश्यकता :
संसार के साधारण प्राणी का मन निरन्तर इतस्ततः इतना गतिशील रहता है कि वह क्षण-पल में ही त्रिलोकी की यात्रा कर लेता है। बस्तुतः उसकी गति, शब्द, वायु और विद्युत् से भी अतीव द्रुततर है। मन की इस असीम चंचलता से प्राणी अपना सही स्वरूप भी नहीं जान सकता, पर-पदार्थों को रमणीय समझकर उनकी प्राप्ति के लिये लालायित रहता है । पौद्गलिक होने के कारण उसका अपने सजातीय वियय-कषाय की ओर यह आकर्षण होना सहज भी है। जिस प्रकार एक अशिक्षित बालक मिट्टी में खेलने का शौकीन होने के कारण मिट्टी में खेलते हुए साथियों को देखते ही उनकी ओर दौड़ लगाता है, ठीक उसी प्रकार मन भी पौद्गलिक होने के कारण शब्दादि विषयों की ओर सहज ही आकृष्ट होता रहता है । बह इन्द्रियों के माध्यम से शब्द, रूप, रस, गन्ध व नाना प्रकार के सुखद सुरम्य स्पर्शादि को जानता, पहिचानता एवं स्मरण करता हुआ अनुकूल की चाह और प्रतिकूल के विरोध व परिहार में मानव को सदा परेशान करता रहता है । जब तक उसकी चाह पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक वह राग से पाकुल-व्याकुल हो आर्तध्यान करता और इष्ट प्राप्ति में बाधक को अपना विरोधी समझ उससे द्वेष कर रौद्र रूप धारण करता है।
___ इस प्रकार राग-द्वेष की आकुलता से मानव-मन सदा अशान्त, क्षुब्ध और दुःखी रहता है। इस चिरकालीन अशान्ति को दूर करने हेतु मन की गति को मोड़ना आवश्यक माना गया है। कारण कि इष्टा-निष्ट की ओर मन का स्थिर होना तो अधोमुखी जल प्रपात की तरह सरल है, किन्तु इष्टानिष्ट की चिन्ता रहित मानसिक स्थिरता व स्वस्थता के लिये ध्यान-साधन की आवश्यकता होती है। ध्यान का स्वरूप और व्याख्या :
__विषयाभिमुख मन को विषयों से मोड़कर स्वरूपाभिमुख करने की साधना का नाम ही योग अथवा ध्यान है।
ध्यान वह साधना है, जो मन की गति को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी एवं बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जैन
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