Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• व्यक्तित्व और कृतित्व
एसो बाहिरग्गतवो, समासेण वियाहियो।
अन्भिन्तरं तव एत्तो, वुच्छामि अणुपुव्वसो ॥२६।। इस प्रकार पूर्वोक्त छः प्रकार का संक्षेप में बाह्य तप कहा गया है, अब आन्तर तप की कहूँगा, हे जम्बू ! अनुक्रम से श्रवण करना। प्रथम नाम बता रहे हैं:
पायच्छितं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो।
झाणं च विउसग्गो, एसो अभितरो तवो ॥३०॥ १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग, ये प्रान्तर तप के ६ भेद हैं।
आलोयणा रिहाईयं, पायच्छितं तु दसविहं ।
सं भिक्खू वहई सम्म, पायचितं तमाहियं ।।३१।। प्रायश्चित दस प्रकार के हैं पालोचना, प्रतिक्रमण आदि। प्रात्मशुद्धि के लिए जिस अनुष्ठान का भिक्षु सम्यक् वहन करे उसको प्रायश्चित कहते हैं। विनय तप का वर्णन करते हैं:
अभुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विरणग्रो एस वियाहियो ॥३२॥ गुरु आदि के आने पर अभ्युत्थान करना, अंजलि जोड़ना, आसन प्रदान करना तथा गुरु की भक्ति और भावपूर्वक सुश्रूषा यह विनय नाम का तप है।
पायरिय माईए, वैयावच्चम्मि दसविहे ।
प्रासेवणं जहाथाम, वेयावच्चं तमाहियं ॥३३॥ आचार्य आदि दस प्रकार की वैयावच्च में शक्ति के अनुसार आहार-दान आदि संपादन करना, इसको वैयावच्च कहते हैं। विनय और वैयावृत्य की शुद्धि के लिये ज्ञान की आवश्यकता रहती है, इसलिये वैयावृत्य के पश्चात् स्वाध्याय कहते हैं । यह भाव सेवा भी है। स्वाध्याय के प्रकार:
वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्म कहा, सज्जाओ पंचहा भवे ॥३४।।
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