Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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अपरिग्रह : मानव जीवन का भूषण
हजारों धर्मोपदेशकों के उपदेश, प्रचारकों का प्रचार और राज्य के नवीन अपराध निरोधक नियमों के बावजूद भी जनता में पाप क्यों नहीं कम हो रहे, लोभ को सब कोई बुरा कहते हैं, फिर भी देखा जाता है— कहने वाले स्वयं अपने संग्रह को बढ़ाने की ओर ही दौड़ रहे हैं। ऐसा क्यों ? रोग को मिटाने के लिए उनके कारणों को जानना चाहिए ।
पाप घटाने के लिये भी उसके कारणों को देखना आवश्यक है। शास्त्र में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि दस संज्ञाएँ बताई गई हैं । संसार के आबाल वृद्ध जीवमात्र इन संज्ञाओं से त्रस्त हैं । सामायिक के बाद, हम प्रति दिन आलोचना करते हैं कि चार संज्ञानों में से कोई संज्ञा की हो "तस्स मिच्छामि दुक्कड़" पर किसी संज्ञा में कमी नहीं आती । आहार, भय और मैथुन संज्ञा में अवस्था पाकर फिर भी कमी आ सकती है, पर लोभ-परिग्रह संज्ञा अवस्था जर्जरित होने पर भी कम नहीं होती। इसके लिये सूत्रकार ने ठीक ही कहा है
"जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढ़इ ।”
लाभ वृद्धि के साथ लोभ भी बढ़ता है, इसीलिए तो अनुभवियों ने कहा है - " तृष्णैका तरुणायते", समय आने पर सब में जीर्णताजन्य दुर्बलता प्राती है, पर करोड़ों-अरबों वर्ष बीतने पर भी तृष्णा बूढ़ी नहीं होती, बल्कि वह तरुण ही बनी रहती है ।
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भेच्छा की वृद्धि के शास्त्र में अन्तरंग और बहिरंग दो कारण बताये हैं । लोभ, मोह या रतिराग का उदय एवं मूर्च्छा भाव आदि अन्तर के मूल कारण हैं। खान-पान, अच्छा रहन-सहन, यान वाहन, भबन भूषण आदि दूसरे के बड़े चढ़े परिग्रह को देखने-सुनने से लोभ भावना बढ़ती है । परिग्रह का चिन्तन भी लोभ वृद्धि का प्रमुख कारण है । मेरे पास कौड़ी नहीं, स्वर्ण-रत्न के आभूषण नहीं और अमुक के पास हैं, इस प्रकार अपनी कमी और दूसरों की बढ़ती का चिन्तन करने से परिग्रह संज्ञा बढ़ती है ।
परिग्रह घटाइये, सादगी बढ़ाइये
गांव में परिग्रह का प्रदर्शन कम है तो वहाँ वस्त्राभूषण आदि के संग्रह का नमूना भी अल्प दृष्टिगोचर होता है । शहर और महाजन जाति में
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