Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
• ३०६
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
शास्त्रों में इसको आन्तरिक तप माना है। ध्यान के बल से विचारों में शुद्धि होती और उनकी गति बदलती है ।
ध्यान की दो दशाएं हैं—प्रथम साधना और दूसरी सिद्ध दशा । साधना दशा के लिये प्राचार्यों ने आहार-विहार, संग और स्थान की अनुकूलता आवश्यक मानी है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि समाधि का भी श्रमण प्रमाणयुक्त और निर्दोष अाहार ग्रहण करे, गुणवान् मित्र को सहायक बनावे और एकान्त शान्त स्थान पर साधना करे ।' इसका कारण यह है कि आहार-विहार एवं संग शुद्धि से तन-मन शान्त और स्वस्थ रहता है, जिससे ध्यान की साधना सरलता से होती है , कहा भी है
युक्ताहार विहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा ।। अर्थात् उचित आहार-विहार, साध्य के अनुकूल कार्य-सिद्धि हेतु चेष्टाओं एवं उचित निद्रा तथा जागरण से साधना दुःख दूर करने वाली होती है। साधनाकाल में ध्यानी के लिये इन साधनों की ओर ध्यान रखना आवश्यक है।
आचार्य हरिभद्र ने भावना, चिन्ता, अनुप्रेक्षा और ध्यान-इस प्रकार ध्यान के चार भाग किये हैं। उन्होंने मित्रा, तारा आदि पाठ दृष्टियों का भी विचार किया है। प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने पार्थिवी, आग्नेयी आदि पाँच धारणाओं का उल्लेख कर पिण्डस्थ, पदस्थ आदि ध्यान के चार भेद किये हैं। पर पागम साहित्य में इनका वर्णन नहीं मिलता। जैनागम, स्थानांग और भगवती सूत्र में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के सोलह-सोलह भेद बतलाये हैं। हारिभद्रीय वृत्ति में ध्यान का विशद वर्णन किया गया है। उसमें लक्षण और आलम्बन को भी ध्यान के भेद रूप में बताया गया है ।
वैदिक परम्परा में जहाँ प्रारम्भ से ही 'चित्तवृत्ति-निरोध' को योग या ध्यान माना है, वहाँ जैन शास्त्रों में ध्यान का प्रारम्भ चित्तवृत्तियों का सब पोर से निरोध कर किसी एक विषय पर केन्द्रित कर उस पर चिन्तन करना माना है।
प्राचीन समय के साधु और श्रावक रात्रि के प्रशान्त वातावरण में धर्मजागरण किया करते थे। उसमें अनवरत शुभ चिन्तन के माध्यम से मन की
१, आहारमिच्छेमियमेसणिज्ज, सहाय निच्छे निउण? बुद्धि । निकेयमिच्खेज्ज विवेग जोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ।। ४ ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय ३२
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org