Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 346
________________ [८] जीवन का ब्रेक-संयम चेतना : प्रात्मा का स्वाभाविक गुरण : आत्मा का स्वाभाविक गुण चैतन्य है । वह अनन्त ज्ञान-दर्शन का पुंजपरमज्योतिर्मय, प्रानन्दनिधान, निर्मल, निष्कलंक और निरामय तत्त्व है, किन्तु अनादिकालीन कर्मावरणों के कारण उनका स्वरूप प्राच्छादित हो रहा है । चन्द्रमा मेघों से प्रावृत्त होता है, तो उसका स्वाभाविक आलोक रुक जाता है, मगर उस समय भी वह अमूल नष्ट नहीं होता । इसी प्रकार आत्मा के सहज ज्ञानादि गुण आत्मा के स्वभाव हैं, आवृत हो जाने पर भी उनका समूल विनाश नहीं होता। वायु के प्रबल वेग से मेघों के छिन्न-भिन्न होने पर चन्द्रमा का सहज आलोक जैसे चमक उठता है, उसी प्रकार कर्मों का आवरण हटने पर आत्मा के गुण अपने नैसर्गिक रूप में प्रकट हो जाते हैं । इस प्रकार जो कुछ प्राप्तव्य है, वह सब आत्मा को प्राप्त ही है। उसे बाहर से कुछ ग्रहण करना नहीं है । उसका अपना भण्डार अक्षय और असीम है। साधना : भीतरी निधि पाने का प्रयास : बाहर से प्राप्त करने के प्रयत्न में भीतर का खो जाता है । यही कारण है कि जिन्हें अपनी निधि पाना है, वे वड़ी से बड़ी बाहर की निधि को भी ठुकरा कर अकिंचन बन जाते हैं। वक्रवर्ती जैसे सम्राटों ने यही किया है और ऐसा किये बिना काम चल भी नहीं सकता । बाह्य पदार्थों को ठुकरा देने पर भी अन्दर के खजाने को पाने के लिए प्रयास करना पड़ता है । यह प्रयास साधना के नाम से अभिहित किया गया है। साधना के दो अंग : संयम और तप : ___ भगवान महावीर ने साधना के दो अंग बतलाये हैं-संयम और तप । संयम का सरल अर्थ है-अपने मन, वचन और शरीर को नियंत्रित करना, इन्हें उच्छृङ्खल न होने देना, कर्मबन्ध का कारण न बनने देना । मन से अशुभ चिन्तन करने से, वाणी का दुरुपयोग करने से और शरीर के द्वारा अप्रशस्त कृत्य करने से कर्म का बन्ध होता है। इन तीनों साधनों को साध लेना ही साधना का प्रथम अंग है । जब इन्हें पूरी तरह साध लिया जाता है, तो कर्मबन्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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