Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 354
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.. • ३३५ इसके विपरीत हिंसादि से अविरत रहने पर जीव आस्रव से राग द्वेष के कारण कर्म का संचय करता है। उस संचित कर्म को भिक्षु जिस प्रकार नष्ट करता है, उसे एकाग्र मन होकर मेरे पास श्रवण करो। जहा महातलागस्स, सन्निरुद्ध जलागमे ।। उस्सि चणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥५॥ पहले दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जिस प्रकार किसी बड़े तालाब के जलागम द्वार रोकने पर, सिंचाई और ताप के द्वारा क्रमशः सारा पानी सूख जाता है, भूमि निर्जल हो जाती है । एवंतु संजयस्सावि, पावकम्म निरासवे । भव कोडी सचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।।६।। तालाब की तरह संयमी आत्मा के भी पाप-कर्म का प्रास्रव रुक जाने पर करोड़ों जन्मों का संचित कर्म तपस्या से निर्जीण हो जाता है अर्थात् तपस्या के द्वारा जन्म-जन्मान्तर के भी संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। अब तप के प्रकार कहते हैं : सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभंतरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमभंतरो तवो ।।७।। पूर्वोक्त गुण विशिष्ट वह तप दो प्रकार का कहा गया है, यथा-बाह्य तथा आभ्यन्तर । बाह्य तप छः प्रकार का है ऐसे आन्तर तप भी छः प्रकार का कहा गया है। भौतिक पदार्थों के त्याग से शरीर एवं इन्द्रिय पर असर करने बाला बाह्य तप और मन जिससे प्रभावित हो, उसे आन्तर तप समझना चाहिये । दोनों एक दूसरे के पूरक होने से आवश्यक हैं। प्रथम बाह्य तप का विचार करते हैं : अणसण-मूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चायो । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥८॥ प्रथम अनशन-आहार त्याग, २. ऊनोदर-बाहार आदि में प्रावश्यकता से कम लेना, ३. भिक्षाचरिका, ४. मधुरादि रस का त्याग, ५. कायक्लेश-प्रासन, लुंचन आदि ६. संलोनता-इन्द्रियादिक का गोपन इस प्रकार बाह्य तप छः प्रकार का होता है। प्रत्येक का भेद पूर्वक विचार : Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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