Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 337
________________ • ३१८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रभु मेरे अवगुण चित्त न धरो, स्वामी मेरे अवगुण चित्त न धरो। समदर्शी है नाम तिहारो, चाहे तो पार करो। प्रभु मेरे० ॥ इक लोहा ठाकुर पूजा में, इक घर बधिक पर्यो।। पारस गुण अवगुण न विचारे, कंचन करत खरो।। प्रभु मेरे० ।। क्या कहता है भक्त अपने को अर्पित करता हुअा ? वह अन्तःकरण को खोल कर, निष्कपट भाव से प्रभु के चरणों में उंडेल देता है । कहता हैप्रभो! तुम समदर्शी कहलाते हो। कोई कूल की दष्टि से, कोई बल की दृष्टि से, कोई सत्ता और अधिकार आदि की दृष्टि से किसी को ऊँचा और किसी को नीचा समझता है । मगर तुम तो किसी को ऊँचा और किसी को नीचा नहीं मानते । तुम्हारा यह स्वभाव ही नहीं है । तुम तो जीव के मूल स्वभाव को जानते हो। तुम्हारा सिद्धान्त तो यही बतलाता है कि उस बच्चे में भी जिसे लिखना, पढ़ना अथवा बोलना भी नहीं आता, अनन्त ज्ञान का भण्डार भरा है, उसमें भी अनन्त ज्ञानी और परमज्योनिमय देव विराजमान हैं। और बालक की बात भी छाडिए । आखिर वह भी मनुष्य है और पाँच इन्द्रियों का तथा मन का धनी है। उससे भी छोटे और नीचे स्तर के जीवधारियों को लें। एक कीड़े को लें या एकेन्द्रिय जीव पर ये ही विचार करें । उसकी चेतना एक दम सुषप्त है, वह रोना नहीं जानता, हँसना भी नहीं जानता, चलना फिरना भी नहीं जानता । फिर भी उसमें परमात्मिक शक्तियाँ विद्यमान हैं । वही शक्तियाँ जो आदिनाथ में, पर्श्वनाथ में और महाबीर में हैं। तो भक्त कहता है समदर्शी है नाम तिहारो। प्रभो ! आप समदर्शी कहलाते हैं, तो मुझे भी पार कर दो, मुझे भी उसी पूर्णता पर पहुँचा दो। कोई कह सकता है-अरे तू पार करने की मांग करता है परन्तु जरा अपनी ओर तो देख ! अपने रूप को देख कि तू कैसा है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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